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________________ प्राचीन जैनशिलालेखों एवं जैनग्रन्थ प्रशस्तियों में उल्लिखित कुछ श्रावक-श्रविकायें 147 किसी के भी मुख से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उसका मुखमण्डल ग्रीष्मकालीन दोपहर के प्रखर सूर्य के समान तेजोदीप्त तथा उसके शरीर से तप्त स्वर्ण के समान अलौकिक कान्ति झाँक रही थी। उस मूत्ति का नाम अतिमव्वे था। उसने रौद्ररूपा गोदावरी नदी पर एक तीक्ष्ण दृष्टि डाली। फिर नदी के उस पार खड़े अपने प्रियतम नागदेव तथा उनकी सैन्य टुकड़ी के ऊपर एक दृष्टि डाली और पञ्चनमस्कार मन्त्र का उच्चारण एवं जिनेन्द्र देव का स्मरणकर गम्भीरवाणी में बोली-“यदि मेरी जिनेन्द्र-भक्ति अडिग है, मेरा पातिव्रत्य-धर्म अखण्ड है और यदि मेरी सत्य निष्ठा अकम्प है, तो हे गोदावरी नदी, मैं तुझं आदेश देती हूँ कि तेरा यह रौद्र-प्रवाह उतने समय तक के लिए रुक जाय, जब तक कि हमारे प्रियतम अपने सैन्य-समुदाय के साथ उस पार से इस पार तक वापस न लौट आये।" गोदावरी के आर-पार खड़े लोगों ने देखा कि सचमुच ही उस महासती का आदेश गोदावरी ने मान लिया । उसका उग्ररूप शान्त हो गया और उसका पति नागदेव अपने सैनिकों के साथ इस पार लौट आया तथा उसके तत्काल बाद ही गोदावरी ने फिर वही अपना रौद्ररूप धारण कर लिया ।। युद्ध में आहत हो जाने के कारण नागदेव का कुछ समय के बाद ही स्वर्गवास हो गया और अत्तिमव्वे वैधव्य का जीवन व्यतीत करने लगी। किन्तु उस अवस्था में भी उसने अनेक महत्वपूर्ण कार्य किए। स्वर्ण एवं कीमती हीरे तथा माणिक्यों की १५०० मूत्तियाँ बनवाकर उसने विभिन्न जिनालयों में प्रतिष्ठित कराई, चतुर्विध दानशालाएँ खुलवाई तथा उभयभाषा चक्रवर्ती महाकवि पोन के शान्तिपुराण की १००० प्रतिलिपियाँ कराकर विविध शास्त्र-भण्डारों में वितरित कराई। वि० सं० ११७५ के एक शिलालेख में उक्त महासती के विषय में इस प्रकार कहा गया है-"होयसल नरेश के महापराक्रमी सेनापति गंगराज ने महासति अत्तिमव्वे द्वारा गोदावरी-प्रवाह को स्थिर कर देने की साक्षी देकर ही उमड़ती हुई कावेरी नदी को शान्त किया था। समस्त विश्व इस महान् जिनेन्द्र भक्ता अत्तिमव्वरसि की इसी लिए प्रशंसा करता है कि उसके आदेश देते ही उसके तेजोप्रभाव से गोदावरी नदी का प्रवाह तक रुक गया था।" १२ वीं सदी के आसपास में उत्कीर्ण कराए गए एक शिलालेख (सं० १४०) में जक्कियव्वे नामक एक ऐसी वीरांगना के कार्यों का वर्णन है, जिसकी तुलना महारानी दुर्गावती, लक्ष्मीवाई एवं जोन आफ आर्क से की जा सकती है। राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय के शासन काल में अपने पति सत्तरस नागार्जुन के स्वर्गवास होने पर उसे नागर खण्ड की शासिका नियुक्त किया गया था। वह प्रजाशासन के समान ही जैन शासन में भी बड़ी कुशल थी । एक बार वह किसी असाध्य बीमारी से ग्रस्त हो गई। अतः उसने अपनी पुत्री पर शासन का भार सौंपकर समाधिमरण पूर्वक शरीर-त्याग किया। कडूर-दुर्ग के मुख्य प्रवेश द्वार के स्तम्भ पर १० वीं सदी को एक राज-तपस्विनी आर्यिका पाम्बव्वे का उल्लेख हुआ है । उसके अनुसार उसने बड़ी ही निर्भयता के साथ अपने केशलोंच करके आर्यिका व्रत की दीक्षा लो और तीस वर्षों तक कठोर तपश्चर्या की। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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