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________________ प्राचीन जैन शिलालेखों एवं जैनग्रन्थप्रशस्तियों में उल्लिखित कुछ श्रावक-श्राविकायें 143 इसकी लिपि ब्राह्मी एवं भाषा मिश्रित शौरसेनी प्राकृत है । उसमें उसने अपने द्वारा किए गए तूफानी युद्धों एवं सफल विजयों की चर्चा तो की ही है, साथ ही यह भी लिखा है कि- 'मैंने जैन धर्म एवं जैन साहित्य की उन्नति हेतु अनेक कार्य किए हैं । पूर्वकाल में नन्दराज द्वारा अपहृत कलिंग जिन की प्राचीन मूर्ति भी वापस ले ली है ।' यह कलिंग जिन भगवान् ऋषभदेव की मूर्ति थी, जो खारवेल के पूर्व काल से ही कलिंग की राष्ट्रियमूत्ति के रूप में पूजित थी । मगध के नन्द-नरेश उसे छीनकर पाटलिपुत्र ले आए थे 1 शिलालेख के अन्त में खारवेल लिखता है कि - " मैंने कुमारी पर्वत पर अर्हन्तों की अनेक निषद्याएँ एवं तपोधनमुनियों के लिए अनेक गुफाएँ बनवाई हैं । इसी प्रसंग में मैंने स्वयं उपासक अर्थात् श्रावक व्रत धारण किए हैं।" फिर आगे वह लिखता है कि "मैंने विशाल जिन मन्दिर के पास एक भव्य सभा मण्डप तथा उसके मध्य में उत्तुंग मानस्तम्भ का भी निर्माण कराया है। इस सभा मण्डप में तपस्वी, ज्ञानी श्रमण-मुनियों का एक सम्मेलन बुलवाया है, जिसमें चारों ओर के दूर-दूर से श्रमण महामुनिगण पधारे थे ।" इस सम्मेलन में राजर्षि खारवेल ने भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि में उच्चरित उस कल्याणकारी द्वादशांगश्रुत का पाठ कराया था, जो कि वीर निर्वाण संवत् १६५ अर्थात ई० पू० ३६२ (जो कि श्रुतके वलि भद्रबाहु का निर्वाणकाल था) से क्रमश: धूमिल होता जा रहा था । खारवेल ने उसके उद्धार का पूर्ण प्रयत्न किया । खारवेल यद्यपि जिनेन्द्र भक्त श्रावक - शिरोमणि था, फिर भी एक महान् सर्वधर्म सहिष्णु नृपति भी था । उसके राष्ट्रिय भावना से ओतप्रोत एवं पराक्रमी होने का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण यह है कि भारत भूमि पर विदेशी प्रभाव को भयानक भविष्य की भूमिका मानकर उसने आतंककारी यूनानी आक्रामक नरेश दिमित्र को मथुरा तथा सम्भवतः उससे भी आगे उत्तरी-पश्चिमी सीमान्त से बुरी तरह खदेड़ दिया था । इस प्रकार खारवेल - शिलालेख जैन इतिहास एवं संस्कृति की कलापूर्ण निधि तो है ही, भारतीय इतिहास के अनेक प्रच्छन्न अथवा अस्पष्ट तथ्यों की भी एक सफल कुंजी है । इसीलिए इतिहासकार राखालदास बनर्जी ने लिखा है कि "यह लेख पौराणिक वंशावलियों की पुष्टि करता है और ऐतिहासिक कालगणना को लगभग ५ वीं शती ई० पू० के मध्य तक पहुँचा देता है ।" 'भारतवर्ष' के नाम का सर्वप्रथम उल्लेख इसी शिलालेख में मिलता है । नो मंगल, हसकोटे एवं मर्करा के ताम्रपत्र लेखों तथा अन्य शिलालेखों के अनुसार गंगराज अविनीत ने अनेक जैन मन्दिरों, रचाध्याय - शालाओं एवं दानशालाओं का निर्माण कराया था । इस श्रावक - राजा की जिनेन्द्र- भक्ति का परिचय इसी से मिल जाता है कि उसने अपनी बाल्यावस्था में एक तीर्थंकर मूर्ति को अपने मस्तक पर विराजमान कर भयानक बाढ़ से रौद्ररूप धारण किए हुए कावेरी नदी को अकेले ही पार कर लिया था । राजगद्दी पर बैठने के बाद उसने ४६६ ईस्वी के आसपास अपने पुत्र राजकुमार दुर्विनीत में जैनधर्म के संस्कार डालने हैतु सर्वार्थसिद्धि के प्रणेता आचार्य देवनन्दि पूज्यपाद (५२१५८१ वि० सं०) को शिक्षक के रूप में रखा था। आगे चलकर इसी राजकुमार दुर्विनीत ने अपने राज्याभिषेक के बाद अपनी राजधानी तलकाड में एक जैन विद्यापीठ की स्थापना की थी, जिसमें जैनधर्म के साथ-साथ सिद्धान्त, आचार, दर्शन, छन्द, व्याकरण, आयुर्वेद, काव्य, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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