________________
140
i VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
'बृहत्कथा' की वस्तु को श्रीकृष्ण की प्राचीन कथा के आधार पर गुम्फित किया गया है । ग्रथन- कौशल से ही इस कथाकाव्य में नव्यता आ गई है । जैनवाङ्मय के सुपरिचित जर्मनअधीती श्रीयाकोबी मतानुसार जैनों में कृष्ण की कथा ईसवी सन् ३०० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आ चुकी थी । श्री याकोबी मानते हैं कि ईसवी सन् के प्रारंभ तक जैन पुराण- कथा सम्पूर्णता की स्थिति में आ गई थी। जैनों ने जिस समय 'बृहत्कथा' को अपनी पुराण- कथा के कलेवर में सम्मिलित किया था, उस समय वह (बृहत्कथा ) एक प्रसिद्ध कवि की कृति होने के अतिरिक्त देवकथा की भव्यता से प्रभास्वर, प्राचीन युग की रचना मानी जाने लगी थी, जिसकी महत्ता पुराणों एवं महाकाव्यों की कथा के समाने हो गई थी । इसीलिए, 'बृहत्कथा' के जैन प्राकृत-नव्योदभावन से मूल 'बृहत्कथा' के रचनाकाल की शतियों प्राचीनता को लक्ष्य कर डॉ० बूलर ने गुणाढ्य का समय ईसवी सन् की पहली या दूसरी शती और पेरिस के फ्रेंच - विद्वान् प्रो० लाकोत ने तीसरी शती माना है । इस सन्दर्भ में डॉ० अॅल्सडोर्फ का यह मत कि गुणाढ्य को यदि बहुत प्राचीन समय में नहीं, तो उसे ईसवी सन् की पहली या दूसरी शती - पूर्व में मानना चाहिए, अमान्य नहीं है ।
डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल का यह कथन यथार्थ है कि गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' अपने युग में व्यासकृत 'महाभारत' के समान अपने देश के काव्य और कथा - साहित्य पर छाई हुई थी, जो आज काल के विशाल अन्तराल में जाने कहाँ विलीन हो गई । इसलिए, उक्त कृति के उत्तरकालीन रुपान्तरों, वाचनाओं या नव्योद्भावनों से ही इसकी विषयवस्तु के सम्बन्ध में कुछ कड़ियाँ जोड़नी पड़ती हैं ।
प्रो० लाकोत ने विलुप्त 'बृहत्कथा' की आयोजना का अनुमान सम्भवतः 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के आधार पर इस प्रकार किया है : प्रस्ताविक भाग में उदयन और उसकी दो रानियों - वासवदत्ता एवं पद्मावती की सुविदित कथा थी । वासवदत्ता का पुत्र नरवाहनदस जब युवा राजकुमार की अवस्था को प्राप्त हुआ, तब उसका गणिकापुत्री मदनमंचका ('बृहत्कथाश्लोक संग्रह' में मदनमंजुका) से प्रेम हो गया । उस राजकुमार ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध उससे विवाह कर लिया । एक विद्याधरराज मदनमंचुका को हर ले गया । मदनमंचुका को खोजते हुए नरवाहनदत्त ने विद्याधर- लोक और मनुष्यलोक में नये-नये पराक्रम किये । दीर्घ पराक्रम के बाद मदनमंचका से उसका मिलन हुआ । राजकुमार नरवाहनदत्त स्वयं विद्याधरचक्रवर्ती बना और मदनमंचुका उसकी प्रधान महिषी ( पटरानी) बनी । नरवाहनदत्त अपने प्रत्येक पराक्रम के बाद अन्त में एक-एक सुन्दरी से विवाह करता है । इस प्रकार, प्रत्येक पराक्रम की कथा के अन्त को गुणाढ्य ने लम्भ (लाभ) की संज्ञा और उसी पद्धति पर नरवाहनदत्त की कथा वेगवतीलम्भ, अजिनवतीलम्भ, प्रियदर्शनालम्भ इत्यादि सर्गों में विभक्त थी ।
'लम्भ' की यही परम्परा 'वसुदेव हिण्डी' में भी मिलती है। इस कथाग्रन्थ में, जो कि अपूर्ण है, कुल अट्ठाईस लम्भ हैं, जिनमें उन्नीसवें और बीसवें लम्भों की कथा लुप्त है, साथ ही २८ वें लम्भ की कथा भी अधूरी है और उपसंहार-अंश अप्राप्य है । 'लम्भ' की यही परम्परा 'कथासरित्सागर' तथा बृहत्कथामंजरी में भी लम्बक के रूप में प्राप्त होती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org