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जैन कानून : प्राचीन और आधुनिक
135 गोत्र ही ज्ञात हैं परन्तु विवाह नियमन उनमें परिवार उपाधि की प्रथा पर चलाया है अर्थात् एक उपाधि रखने वाले व्यक्तियों के बीच विवाह नहीं होता। पद्मावतो पुरवालों में गोत्र ही नहीं है इसलिए गोत्र के विवर्जन का प्रश्न ही नहीं उठता।
यद्यपि गोत्रों द्वारा पौराणिक सूची से प्राप्त व्यक्तियों के नाम का उल्लेख रहता है पर जैन परम्परा 'गोत्र' का परिभाषिक अर्थ है। जैनों के कर्म सिद्धान्त में आठ कर्मों में एक एक गोत्र कर्म भी है। वह गोत्र कर्म जन्म जन्मान्तर से चले आये जीव के चरित्र-आचार व्यवहार को बतलाता है। चरित्र-आचार के उच्च नीच होने से उच्च नीच गोत्र कर्म होता है और यह कर्म ही जीव के जन्म के लिए उच्च नोच परिवारों को निर्धारित करता है । परन्तु यह आश्चर्य की बात है कि जैन समाज में प्रचलित सैकड़ों गोत्र गोत्रकर्म से विल्कुल भिन्न हैं । वर्तमान गोत्रों के अनुसार उनमें उच्च नीच गोत्र के भेद को वतलाने वाली कोई बात नहीं है। गोत्रों को अनेक विधता से चुनाव का क्षेत्र संकुचित होता गया और पर गोत्रों के विस्तार में वृद्धि होने से क्षेत्र का आकार भी छोटा हो गया।
फिर, इन गोत्रों के उद्भव के इतिहास से यह मालुम होता है कि वे बहुत प्राचीन नहीं है। ये विभिन्न समय में विभिन्न कारणों से बने हैं और संभवतः विशेष कारणों से भविष्य में छोड़ भी दिये जा सकते हैं । इन गोत्रों के निर्माण में कोई सिद्धान्त नहीं । अग्रवाल अपने को राजा अग्रसेन का वंशज बतलाते हैं परन्तु अग्रसेन का गोत्र मानने की जगह उन्होंने राजकुमारों के नाम से १८ नये गोत्र बना लिये। जिनसेन आचार्य के द्वारा धर्म में दीक्षित ८४ नगरों के निवासियों को खण्डेलवाल नाम दिया गया और ८४ नगरों के नाम पर ८४ नये गोत्र बनाये गये । प्रत्येक नगर के खण्डेलवाल विवाह के मामले में परगोत्र के माने गये । रत्नप्रभ सूरि ने राजदूतों को जैनधर्म में दीक्षित किया और ओसवाल नाम की एक जाति बनाई जिसे १८ गोत्रों में विभक्त किया। पीछे धर्म परिवर्तन से ओसवाल जाति में और लोग मिलाये गये और मूल गोत्रों को भंग कर नये गोत्र बनाये गये। इनमें से कुछ के नाम पक्षियों पर, कुछ के पशुओं पर, कुछ के निवास स्थानों पर, कुछ के पेशे पर, कुछ का व्यवसाय पर, कुछ के व्यक्तियों के नाम पर, कुछ के विशेष शूर वीरता या बुद्धि के कारण नाम पड़े । इससे मालुम होता है कि गोत्रों के नाम कृत्रिम है और समय समय पर बदले जा सकते हैं। इन हालतों में किसी विशेष गोत्र को बहुत प्राचीनता नहीं मानी जा सकती क्योंकि गोत्र हटाये जाते हैं, बदले जाते है और नये बनाये जाते हैं ।
पर गोत्र के नियम मुख्यतः इस उद्देश्य से बनाये गये हैं कि सगे सम्बंधियों के बीच विवाह रोका जा सके । परिवार सगे सम्बंधियों से बनता है और यह माना गया कि परिवार के सदस्यों का विवाह परिवार से बाहर हो। गोत्र का शाब्दिक अर्थ होता था 'गायों का बाड़ा' पर धीरे धीरे उसका अर्थ परिवार हो गया। इसीलिए गोत्र ऐसी सीमा मानी गई जिसमें विवाह सम्बंध को निन्दा की गई। परन्तु पीछे गोत्र के विभिन्न अर्थ हुए और विवाह सम्पर्क में एक के स्थान में अनेक गोत्रों को वजन करने के नये नियम बनाये गये । परिणामतः जीवनसाथी के चुनाव की स्वतंत्रता में प्रभावक सीमायें या रुकावट हो गई।
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