________________
आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 89
सम्यक दृष्टि आत्मा किसी सीमा तक आत्मसंयम या वासनात्मक वृतियों पर संयम करता है, क्योंकि अविरत सम्यक्दृष्टि में भी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों के स्थायी तीव्रतम आवेगों का अभाव होता है। जब तक व्यक्ति द्वारा कषायों के इस स्थायी रूप तीव्रतम आवेगों ( अनन्तानुबंधी चौकड़ी) का क्षय या उपशम नहीं होता तब तक वह सम्यक् दर्शन को प्राप्त नहीं कर सकता है । अविरत सम्यक् दृष्टि गुण स्थानवर्ती आत्मा को निम्न सात कर्मप्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना होता है
१. अनन्तानुबंधी क्रोध ( स्थायी तीव्रतम क्रोध ) २. अनन्तानुबंधी मान ( स्थायी तीव्रतम मान ) ३. अनन्तानुबंधी माया ( स्थायी तीव्रतम कपट ) ४. अनन्तानुबंधी लोम ( स्थायी तीव्रतम लोम ) ५. मिथ्यात्व मोह ६. मिश्र मोह ७. सम्यक्त्व मोह।
जैन विचारणा के अनुसार आत्मा जब इन कर्मप्रकृतियों को पूर्णतः नष्ट (क्षय ) करके इस अवस्था को प्राप्त करता है तो उसका सम्यक्त्व क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है और ऐसी आत्मा इस गुणस्थान से वापस गिरती नहीं, वरन् अग्रिम विकास श्रेणियों में होकर अन्त में परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। लेकिन जो आत्मा उपरोक्त कर्मप्रकृतियों अथवा वृत्तियों को नष्ट कर आगे नहीं बढ़ती, वरन् क्रोध, मान, माया, लोभ आदि इन वृतियों का दमन कर अर्थात् उन्हें दबा कर आगे बढ़ती है, और इस अवस्था को प्राप्त करती है तो उसका सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है, इसमें वासनाएँ नष्ट नहीं होती, वरन् मात्र उन्हें दबाया जाता है, अतः ऐसे यथार्थ दृष्टिकोण में अस्थायीत्व होता है और आत्मा अन्तरमुहूर्त ( ४८ मिनिट ) के अन्दर ही दमित वासनाओं के पुनः प्रकटीकरण पर उनके प्रबल आवेगों के वशीभूत हो यथार्थता से विमुख हो जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति जब वासनाओं का आंशिक रूप में क्षय कर और आंशिक रूप में उन्हें दबाकर यथार्थता का बोध या सम्यक् दर्शन प्राप्त करता है, तो ऐसे सम्यक् दर्शन में भी अस्थायित्व होता है और दमित वासनाएँ पुनः प्रकट होकर उसे उस स्तर से गिरा देती हैं। वासनाओं के आंशिक क्षय और आंशिक दमन ( उपशम ) पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोण क्षयोपशमिक सम्यक्त्व कहा जाता है।
तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्थविरवादी बौद्ध परम्परा में इस अवस्था की तुलना श्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है। जिस प्रकार औपशमिक एवं क्षयोपशमिक सम्यक्त्व की अवस्था में सम्यक मार्ग से पराङ्मुख होने की सम्भावना रहती है, उसी प्रकार श्रोतापन्न साधक भी मार्गच्युत या पराङ्मुख हो सकता है। महायानी बौद्ध साहित्य में इस अवस्था की तुलना 'बोधि प्राणिधिचित्त' से हो सकती है। जिस प्रकार चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा यथार्थ मार्ग को जानता है, उस पर चलने की भावना भी रखता है, लेकिन वास्तविक रूप में उस मार्ग पर चलना प्रारम्भ नहीं कर देता है, उसी प्रकार 'बोधिप्रणिधिचित्त' में भी यथार्थ मार्ग में गमन की या लोकपरित्राण की भावना का उदय तो हो जाता है, लेकिन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org