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________________ 88 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 जिसमें भावी आयु कर्म का बन्ध हो सके, क्योंकि इस तृतीय गुणस्थान में भावी आयु कर्म का बन्ध नहीं होता, अतः मृत्यु भी नहीं हो सकती। आधुनिक दृष्टि से इस सन्दर्भ में समुचित व्याख्या डॉ. कलघाटकी प्रस्तुत करते हैं। उनका कथन है. कि इस अवस्था में मृत्यु सम्भव नहीं हो सकती, क्योंकि मृत्यु के समय में इस संघर्ष की शक्ति चेतना में नहीं होती है, अतः मृत्यु के समय यह संघर्ष समाप्त होकर या तो व्यक्ति मिथ्या दृष्टिकोण को अपना लेता है या सम्यक् दृष्टिकोण को अपना लेता है । यद्यपि यह अवस्था अल्पकालिक होती है। लेकिन इसकी अल्पकालिकता केवल इसी आधार पर है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमा रेखाओं का स्पर्श नहीं करते हुए संशय की अवस्था में अधिक समय तक नहीं रहा जा सकता, लेकिन मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमाओं का स्पर्श करते हुए यह अनिश्चय की अवस्था दीर्घकालिक भी हो सकती है। गीता अर्जुन के चरित्र के द्वारा इस अनिश्चय की अवस्था का एक सुन्दर चित्र प्रस्तुत करती है। अंग्रेजी साहित्य में शेक्सपीयर ने अपने हैमलेट नामक नाटक में राजपुत्र हैमलेट के चरित्र का जो रेखाङ्कन किया है, वह भी अनिश्चयावस्था का अच्छा चित्रण है। (४) अविरत सम्यकदृष्टि गुणस्थान-अविरत सम्यकदृष्टि गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की वह अवस्था है, जिसमें साधक को सत्यदर्शन हो जाता है । वह सत्य को सत्य के रूप में और असत्य को असत्य के रूप में जानता है, अर्थात् उसका दृष्टिकोण सम्यक् होता है। इस अवस्था में साधक में • शुभाशुभ अथवा कर्तव्याकर्तव्य के मध्य विवेक करने की क्षमता होती है। यह कर्तव्य को कर्तव्य के रूप में तथा त्याज्य कर्म को त्याज्य कर्म के रूप में जानता है। फिर भी उससे कर्तव्यपालन नहीं होता है। वह अशुम को अशुभ तो मानता है, लेकिन अशुभ आचरण से बच नहीं पाता है। दूसरे शब्दों में वह बुराई को बुराई के रूप में जानता तो है, फिर भी पूर्व की आदतों के कारण उन्हें छोड़ने में विवशता का अनुभव करता है। उसका ज्ञानात्मक पक्ष और श्रद्धात्मक पक्ष सम्यक् होने पर भी उसका आचारणात्मक पक्ष असम्यक होता है। ऐसे साधक में वासनात्मक जीवन पर संयम करने की क्षमता क्षीण होती है। वह सत्य, शुभ या न्याय के पक्ष को समझते हुए भी असत्य, अन्याय या अशुभ का साथ छोड़ने में विवशता का अनुभव करता है। महाभारत में ऐसा चरित्र हमें युद्धावसर भीष्म पितामह का मिलता है, जो कौरवों के पक्ष को अन्याय युक्त और अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी विवशतापूर्वक कौरवों के पक्ष में ही रहना स्वीकार करते हैं। सत्य को समझते हुए भी उसे नहीं अपनाने की यह स्थिति जैनदर्शन में अविरत सम्यक दृष्टि कही जाती है। जैन दार्शनिक की दृष्टि में इस स्थिति की व्याख्या यह है कि दर्शन मोह-कर्म की शक्ति के दब जाने या उसके आवरण के क्षीण हो जाने के कारण व्यक्ति को यथार्थ बोध तो हो जाता है, लेकिन चारित्र मोहकर्म की सत्ता बनी रहने के कारण व्यक्ति नैतिक आचरण नहीं कर पाता है। एक अपंग व्यक्ति की भांति जो देखते हुए भी चल नहीं पाता-~-अवरित सम्यक्दृष्टि आत्मा नैतिक मार्ग को, श्रेय के मार्ग को जानते हुए भी उसपर आचरण नहीं कर पाता। वह हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि को बंधन के कारण मानते हुए भी उनसे विरत नहीं हो पाता है। फिर बी अविरत १. Some Problems of Jain Psychology P. 156. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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