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________________ 38 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 (९) राजकीय नियमों का उल्लंघन और राज्य के करों का अपवंचत मत करो । (१०) अपने यौन सम्बन्धों में अनैतिक आचरण मत करो । वेश्या संसर्ग, वेश्यावृत्ति एवं वेश्यावृत्ति के द्वारा धन अर्जन मत करो । (११) अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करो और उसे लोक-हितार्थ व्यय करो । (१२) अपने व्यवसाय के क्षेत्र को सीमित करो और वर्जित व्यवसाय मत करो । (१३) अपनी उपयोग सामग्री की मर्यादा करो और उसका अति-संग्रह मत करो । (१४) वे सभी कार्यं मत करो, जिनसे तुम्हारा कोई हित नहीं होता है, किन्तु दूसरों का अहित सम्भव हो, अर्थात् अनावश्यक गपशप, परनिन्दा, काम- कुचेष्टा, शस्त्र - संग्रह आदि मत करो । (१५) यथासम्भव अतिथियों की, संतजनों की, पीड़ित एवं असहाय व्यक्तियों की सेवा करो । अन्न, वस्त्र, आवास, औषधि आदि के द्वारा उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करो । (१६) क्रोध मत करो, सबसे प्रेम-पूर्ण व्यवहार करो । (१७) अहंकार मत करो अपितु विनीत बनो, दूसरों का आदर करो । (१८) कपटपूर्ण व्यवहार मत करो, वरन् व्यवहार में निश्छल एवं प्रामाणिक रहो । (१९) अविचारपूर्वक कार्य मत करो । (२०) मूर्छा (आसक्ति) मत रखो । उपर्युक्त और अन्य कितने ही आचार नियम ऐसे हैं, जो जैन नीति की सामाजिक सार्थकता को स्पष्ट करते हैं' । आवश्यकता इस बात की है हम आधुनिक संदर्भ में उनकी व्याख्या एवं समीक्षा करें तथा उन्हें युगानुकूल बना कर प्रस्तुत करें। १. देखिये - श्रावक के व्रत, अतिचार और गुण । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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