SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 उसका जीवन है । स्वर्ण, ताम्बा, लोहा, तेल आदि जो कुछ भी प्रकृति के गर्भ से हमको प्राप्ठ होता है, वह सब किन्हीं अन्य पदार्थों के द्वारा मिश्रित होने के कारण अशुद्ध ही होता है, पीछे किन्हीं वैज्ञानिक प्रयोगों के द्वारा उनका शोधन किया जाता है। इसी प्रकार व्यक्ति का प्राकृतिक जीवन भी वास्तव में अहंकार तथा तज्जन्य स्वार्थ से मिश्रित होने के कारण अशुद्ध ही होता है, पीछे किन्हीं विशेष साधनाओं के द्वारा इसका शोधन किया जाता है। जिस प्रकार सोना ताम्बा तेल आदि सकल प्राकृतिक पदार्थों को शुद्ध करके ही व्यवहार में लाया जाता है, उसकी प्राकृतिक अवस्थायें नहीं, इसी प्रकार व्यक्ति को भी अपना जीवन शुद्ध करके ही व्यवहार में लाना चाहिये, प्राकृतिक अवस्थाएँ नहीं। परन्तु अहंकार तथा स्वार्थ उसे ऐसा करने की आज्ञा नहीं देता। इसे ही शास्त्रों में अज्ञान अथवा 'मोह' कहा गया है । तात्त्विक दृष्टि जागृत हुए बिना इस मोह का अभाव होना सम्भव नहीं। यद्यपि तात्त्विक दृष्टि से देखने पर इस जगत् में मेरा-तेरा अथवा अच्छा-बुरा कुछ नहीं है, तदपि व्यक्ति का अहंकार अपनी अभिरुचियों की मुद्रा अंकित करके इनमें मैं-मेरा, तू-तेरा, इष्ट-अनिष्ट, मित्र-शत्रु, ऊंच-नीच आदि रूप-भेद उत्पन्न कर लेता है। इन सकल द्वन्द्वों में से वह किसी पक्ष को अपनाने का प्रयत्न करता है और दूसरे को छोड़ने का । उसका यह अभिप्राय ही व्यवहार भूमि पर स्वार्थ के रूप में अभिव्यक्त होता है, जो उसे न्याय और नीति का उल्लंघन करके जिस-किस प्रकार अपनी पूर्ति करने के लिये उकसाता रहता है । इसी कारण व्यक्ति पर-शोषण के उपाय सोचता है, चित्त में वक्रता उत्पन्न करके मायाचारीयुक्त वचन बोलता है और शरीर के द्वारा चोरी-छप्पे का अथवा सम्पत्ति-संचय का वर्तन करता है । दूसरों के लिये सन्तापकारी होने से उसकी ये सकल प्रवृत्तियाँ हिंसा हैं, और तत्त्व-विरोधी होने से असत्य । तात्त्विक दृष्टि से उसका यह सकल वर्तन संघर्षरत रहने के कारण 'क्षोम' कहलाता है। स्वार्थ जन्य होने के कारण व्यक्ति का यह जीवन या आचरण क्योंकि कृत्रिम है, स्वाभाविक नहीं, इसलिये व्यवहार-भूमि पर इसे अधर्म अथवा पाप कहा जाता है। ये दोनों शब्द वास्तव में कोई कल्पना नहीं है, बल्कि स्वभाव-विरोधी आचरण के की वाचक होने से सत्य हैं। स्वभाव-विरोधी इस विकार का शोधन करने के लिये शास्त्रों में जो विधियाँ अथवा साधनाएँ सुझायी गई हैं, वे भी इसी प्रकार कोई मनमानी कल्पना नहीं हैं, प्रत्युत अनुभवसिख सत्य हैं। स्वभाव-प्राप्ति के हेतु होने के कारण व्यवहार-भूमि पर प्रसिद्ध इन विधियों अथवा साधनाओं को धर्म कहा जाता है, क्योंकि कारण में कार्य का उपचार करना न्याय है । तथापि परमार्थतः ये धर्म नहीं, धर्मप्राप्ति के साधन हैं। धर्म तो व्यक्ति के सहज आचरण का नाम है, 'चारित्तं खलु धम्मो' । 'वह स्वभाव क्या है' इसके उत्तर में आचार्य इस सूत्र को पूरा करते हुए कहते हैं "चारित्तं खलु धम्मो, धम्मो जो सो समो त्ति णिद्दिट्टो। मोहक्खोहविहीणो, परिणामो अप्पणो हु समो॥" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy