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________________ धर्म जिनेन्द्र वर्णी धर्म-प्रधान होने के कारण भारत की पावन कुक्षि में सदा ही धर्मात्मा जन जन्मते तथा पलते रहे हैं । सब अपनी-अपनी अनुभूतियों तथा दृष्टियों के अनुसार धर्मं का लक्षण करते रहे हैं । 'यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः ' यह आचार्यं कणादकृत लक्षण है, और 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः' यह आचार्य जैमिनी की दृष्टि है । इसी प्रकार 'व्यक्ताव्यक्तविज्ञानात् ' सांख्य दर्शन को और 'चित्तवृत्तिनिरोधः ' भगवान् पतञ्जलि को इष्ट है । 'धरतीति धर्मः' यह मनुस्मृतिकृत व्युत्पत्ति है । इस विषय में जैनाचार्यों की दृष्टि अत्यन्त वैज्ञानिक है । इस दिशा में उन्हें न तो किसी साम्प्रदायिक पक्ष का उल्लेख करने की आवश्यकता प्रतीत होती है और न किसी क्रियाकाण्ड की । अत्यन्त सारगर्भित तीन सूत्रों का उल्लेख ही उन्होंने पर्याप्त समझा है - 'दंसणमूलो धम्मो', 'वत्सहावो धम्मो' और 'चारितं खलु धम्मो' । तीनों एक दूसरे से विलग कुछ न होकर एक दूसरे के पूरक हैं । पहले दो लक्षण दार्शनिक पक्ष को लक्ष्य में रखकर दिये गए हैं और तीसरा लक्षण व्यावहारिक पक्ष को । जड़ को तथा चेतन को, स्थूल को तथा सूक्ष्म को, कारण को तथा कार्यं को, स्व को तथा पर को, इस जगत् को तथा इसकी समुचित व्यवस्था को भौतिक दृष्टि से न देखकर तात्विक दृष्टि से देखना 'दर्शन' अथवा सम्यग्दर्शन का लक्षण है, जो यद्यपि साक्षात् रूप से धर्म नहीं तदपि धर्म का मूल अवश्य है, यह पहले सूत्र का तात्पर्य है । धर्म शब्द क्योंकि स्वभावाची है इसलिये वैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर वस्तु का स्वभाव ही धर्म सिद्ध होता है । चर्मचक्षु वस्तु के जिस रूप को देखती है, वह वास्तव में उसका स्वभाव नहीं है । स्वभाव उसके भीतर रहता है, जिसे तात्त्विक दृष्टि ही देखने के लिये समर्थ है । तात्पर्य है । यह दूसरे सूत्र का अग्नि के संयोग के कारण भले ही जल उष्ण हुआ प्रतीत होता हो, परन्तु वह उसका स्वभाव नहीं है, आगन्तुक है । अग्नि का संयोग हटा लेने पर जल स्वयं जिस ओर झुके वही उसका स्वभाव या धर्म है, और वह है शीतलता । इसी प्रकार ऐन्द्रिय विषयों का संयोग हो जाने के कारण भले ही व्यक्ति स्वार्थी तथा क्षुब्ध स्वभाव नहीं है, आगन्तुक है । इन विषयों में से मैं पर व्यक्ति जिस ओर झुके वही उसका स्वभाव है, है, इसका उल्लेख तृतीय सूत्र में किया गया है । हुआ प्रतीत होता है, परन्तु यह उसका मेरा, तू-तेरा रूप स्वामित्व बुद्धि हटा लेने वही उसका धर्मं है । उसका वह धर्म क्या 'चारितं खलु धम्मो' अर्थात् चारित्र ही धर्मं है । व्यक्ति मन से कैसा विचारता है, वाणी से कैसा बोलता है और शरीर के द्वारा इस जगत् में किस प्रकार से व्यवहार-वर्तन करता है, यह उसका चारित्र कहलाता है । इस पर ही उसका व्यक्तित्व आधारित है, यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522603
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorR P Poddar
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1982
Total Pages294
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size6 MB
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