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सर्वज्ञता
डा० मोहनलाल मेहता जिसका ज्ञान अमूक पदार्थों तक हो सीमित नहीं होता अपितु जिसे समस्त पदार्थों का ज्ञान होता है उसे सर्वज्ञ कहते हैं। समस्त पदार्थों का ज्ञान भी केवल वर्तमान काल तक सीमित नहीं रहता अपितु सम्पूर्ण भूत एवं भविष्यत्काल तक भी जाता है। इसी बात को जैन पारिभाषिक पदावली में यों कहा गया है कि सर्वज्ञ समस्त द्रव्यों एवं उनके समस्त पर्यायों को जानता है।
असर्वज्ञ अर्थात सामान्य प्राणी का ज्ञान इन्द्रियों एवं मन पर आधत होता है। सर्वज्ञ के ज्ञान का सम्वन्ध सीधा प्रात्मा से होता है अर्थात् वह इन्द्रियों एवं मन से निरपेक्ष आत्मा से ही ज्ञान प्राप्त करता है। जब तक वह सशरीर होता है तब तक इन्द्रियाँ उसके साथ रहती अवश्य हैं किन्तु ज्ञान की प्राप्ति के लिए वे निरर्थक ही होती हैं । ऐसा होते हुए भी उसे रूपी और अरूपी दोनों प्रकार के पदार्थों का साक्षात् ज्ञान होता है ।
सर्वज्ञता का विचार करते समय हमारे सन्मुख दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होते हैं : १. क्या समस्त पदार्थों अर्थात् सब द्रव्यों और उनके सब पर्यायों का ज्ञान सम्भव है ? २. क्या रूपी पदार्थों का ज्ञान सीधा आत्मा से हो सकता है ?
जहाँ तक सब द्रव्यों के ज्ञान का प्रश्न है, यह माना जा सकता है कि लोक में स्थित समस्त तत्त्व अर्थात् द्रव्य सर्वज्ञ के ज्ञान के विषय हो सकते हैं क्योंकि लोक सीमित है अतः उसमें स्थित तत्त्व भी क्षेत्र की दृष्टि से सीमित ही हैं। यदि सर्वज्ञ के ज्ञान में सामान्यरूप से सम्पूर्ण लोक प्रतिभासित होता है तो यह स्वतः सिद्ध है कि लोकस्थित समस्त तत्त्व उसके ज्ञान में प्रतिभासित होंगे ही, क्योंकि उन तत्त्वों के संगठन अथवा समुच्चय का नाम ही लोक है। लोक के बाहर अर्थात् अलोक में आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई तत्त्व नहीं है। यह अलोकाकाश असीमित है अर्थात् अनन्त है । असीमित वस्तु किसी के ज्ञान में किस प्रकार एवं कितनी प्रतिभासित होगी, यह समझना कठिन है। यदि वह अपूर्ण प्रतिभासित होगी तो ज्ञान में भी अपूर्णता आ जाएगी। यदि वह सम्पूर्ण प्रतिभासित होगी तो उसकी अनन्तता लुप्त हो जाएगी अर्थात् वह सीमित हो जाएगी क्योंकि ज्ञान में उसका एक सामान्य रूप निश्चित हो जाएगा जिससे अधिक वह नहीं हो सकती अर्थात् वह सारी-की-सारी जान ली जाएगी जिससे अधिक उसका अस्तित्व नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में वह सीमित हो जाएगी, असीमित कैसे रहेगी ? जो वस्तु अनन्त होती है उसका अन्तिम छोर तो जाना ही नहीं जा सकता अन्यथा उसकी अनन्तता का कोई अर्थ ही नहीं होगा। यह नहीं हो सकता कि कोई वस्तु अनन्त भी हो
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