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________________ जैन तर्कशास्त्र में निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण को मीमांसा 297 क्योंकि तिमिर आदि से उपहत चक्ष वाले पुरुष को अर्थ के अभाव में भी प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति देखी जाती है। अतः कदाचित् विसंवाद की संभावना प्रत्यक्ष में भी पाई जाती है। सविकल्पक को समारोप का निषेध करने वाला न मानना असंगत एवं अतकरूप है। क्योंकि विकल्प के विषय में समारोप की संभावना की ही नहीं जा सकती है। इसके विपरीत समारोप का विरोधी होने के कारण ही वह निश्चयात्मक होता है। सविकल्पक को व्यवहार के अयोग्य कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विकल्प ही समस्त व्यवहारों का मूल होता है। स्वलक्षण को विषय न करने के कारण सविकल्पक को अप्रमाण मानना तर्कसम्मत नहीं है अन्यथा अनुमान भी अप्रमाण हो जायगा क्योंकि अनुमान भी स्वलक्षण को नहीं जानता है। शब्दसंसर्ग योग्य प्रतिभास होने के कारण सविकल्पक को अप्रमाण कहना समोचीन नहीं है क्योंकि अनुमान में भी यही बात समान है। शब्दजन्य होने से भी सविकल्पक को अप्रमाण नहीं माना जा सकता है अन्यथा शब्दजन्य प्रत्यक्ष में भी यही दोष दिया जासक ता है।' विकल्प में अर्थ के बिना शब्द मात्र जन्यता शिद्ध नहीं होती है, क्योंकि हमेशा अर्थ के होने पर भी नीलादि विकल्पों की उत्पत्ति देखी जाती है। यदि कोई विकल्प अर्थ के बिना भी हो जाता है तो यह बात निर्विकल्पक में समान रूप से लागू होती है। द्विचन्द्र के अभाव में भी द्विचन्द्र का प्रत्यक्ष होता है। भ्रान्त प्रत्यक्ष और अभ्रान्त प्रत्यक्ष में भेद बतलाना भ्रान्त विकल्प और अभ्रान्त विकल्प में भेद बतलाने के समान है। इस प्रकार विवेचन द्वारा यह स्पष्ट हो गया कि सविकल्पक ज्ञान में कोई कारण विद्यमान नहीं है जिसके होने से अप्रमाण माना जाय । अतः निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि सविकल्पक ज्ञान प्रमाण है। निर्विकल्पक ज्ञान को मात्र ज्ञान होने से प्रमाण नहीं माना जा सकता है । अन्यथा संशय विपरीत आदि मिथ्याज्ञान भी ज्ञानमात्र होने से और समीचीन व्यवहार में अनुपयोगी होने के बावजूद भी प्रमाण रूप मानने होगें। किन्तु कोई भी तर्कप्रधान पुरुष उन्हें प्रमाण रूप नहीं मानता है। इसी प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान संव्यवहार में अनुपयोगी होने से उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता है। १. प्र० क० मा०, पृ० ३८ । २. प्र० क० मा०, पृ० ३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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