SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 296 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 उपर्यक्त विकल्पों में से किस विकल्प के कारण सविकल्पक प्रमाण को बौद्ध अप्रमाण रूप मानते हैं ? यहाँ पर उक्त विकल्पों को एक-एक करके तर्क की कसौटी पर कसा जाएगा एवं उसका परीक्षण किया जाएगा। स्पष्ट आकार विकल होने के कारण सविकल्पक को अप्रमाण रूप कहना ठीक नहीं है, अन्यथा कांच, अभ्रक आदि से व्यवहित पदार्थ के प्रत्यक्ष में अप्रमाण का प्रसंग प्राप्त होगा । यद्यपि वह स्पष्टाकार से विकल है फिर भी उसमें अज्ञात वस्तु के प्रकाशन रूप संवाद पाया जाता है। इसलिए अविसंवाद रूप लक्षण के पाये जाने के कारण उसे प्रमाण मानना ही चाहिए।' गहीतग्राही होने से फिर भी सविकल्पक को अप्रमाण रूप मानने से अनुमान को भी अप्रमाण रूप मानना होगा, क्योंकि अनुमान भी व्याप्तिज्ञान के द्वारा योगि प्रत्यक्ष से गृहीत अर्थ को जानता है । अतः क्षणिकत्व को सिद्ध करनेवाला अनुमान भी किस प्रकार प्रमाण रूप हो सकता है ? क्योंकि जिस समय यह कहा जाता है कि "सर्वंक्षणिक सत्त्वात्' अर्थात् सभी पदार्थ क्षणिक हैं, सत्त्व होने से, उसी समय ये शब्द श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष के विषय हो जाते हैं और उसी प्रत्यक्ष के द्वारा जाने गये क्षणिकत्व को अनुमान प्रमाण विषय करता है। अतः अनुमान गृहीतग्राही है इसलिए वह अप्रमाण रूप होना ही चाहिए। यदि बौद्ध तर्क करें कि वह प्रत्यक्ष तो मात्र शब्द को ही जानता है उसके क्षणिकत्व धर्म को नहीं जानता है। इसके प्रत्युत्तर में जैन तर्क शास्त्री कहते हैं कि आपके कथन से स्पष्ट है कि एक ही वस्तु का ग्रहण और अग्रहण होने से शब्द रूप धर्मी से उसका क्षणिकत्व धर्म भिन्न हो जायेगा और शब्द अक्षणिक ठहरेगा। अतः सविकल्पक ज्ञान भी प्रमाण है। असत में प्रवत्ति करने के कारण सविकल्पक ज्ञान को अप्रमाण मानना ठोक नहीं है क्योंकि यद्यपि अतीत अनागत कालवर्ती वस्तु विकल्प के काल में नहीं है फिर भी स्वकाल में तो उसकी सत्ता रहती ही है। इसके बावजूद सविकल्पफ को अप्रमाण मानने से निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को भी अप्रमाण मानना होगा क्योंकि प्रत्यक्ष का विषय भी प्रत्यक्ष के समय नहीं रहता है।' बौद्धों का यह कथन कि सविकल्पक ज्ञान हित-प्राप्ति और अहित-परिहार करने में समर्थ नहीं है, ठीक नहीं है क्योंकि सविकल्पक ज्ञान से ही इष्ट पदार्थ की प्रतिपत्ति, प्रवृत्ति और प्राप्ति देखी जाती है। इसी प्रकार अनिष्टार्थ में निवृत्ति भी उसी के द्वारा देखी जाती है। कदाचित विसंवादी होने के कारण सविकल्पक ज्ञान को अप्रमाण माना जाय तो प्रत्यक्ष में भी इस प्रकार का अप्रामाण्य का प्रसंग दिया जा सकता है, १. वही, पृ० ३७ । २. वही, पृ० ३७ । ३. वही, पृ० ३७ । ४. प्र० क० मा०, पृ० ३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy