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________________ जैन तर्कशास्त्र में निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण की मीमांसा 293 को उत्पन्न करने में समर्थ है तो यहाँ पर प्रत्युत्तर में जैन तार्किकों का कथन है कि विकल्पवासनासापेक्ष अर्थ ही विकल्प को उत्पन्न कर देगा, दोनों के बीच में निर्विकल्पक ज्ञान मानने की क्या आवश्यकता है ?' यदि बौद्ध जानना चाहें कि अज्ञात अर्थ विकल्प को कैसे उत्पन्न कर देगा? तो उन्हें इस प्रश्न के उत्तर के पूर्व बतलाना होगा कि अनिश्चयात्मक ज्ञान निश्चयात्मक ज्ञान को कैसे उत्पन्न कर सकता है ?२ इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध तार्किक यह कहने का साहस करें कि अनुभूति भाव से ही निर्विकल्पक सविकल्पक को उत्पन्न कर सकता है तो यह दोष दिया जा सकता है कि जिस प्रकार नील आदि पदार्थों में विकल्प उत्पन्न करता है उसी प्रकार उनमें रहनेवाले क्षणिकत्व में भी विकल्प को उत्पन्न क्यों नहीं करता है। दूसरे शब्दों में जैसे यह नील है इस विकल्प की तरह यह क्षणिक है इस प्रकार का भी विकल्प होना चाहिए। यदि बौद्ध इस दोष से बचने के लिये यह तर्क पेश करें कि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष जिस विषय में विकल्पवासना को प्रबुद्ध करता है उसी विषय में सविकल्पक को उत्पन्न करता है, यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि जब निर्विकल्पक अनुभव मात्र से विकल्प-वासना का प्रवोधक होता है तो नीलादि में विकल्पवासना को उत्पन्न करने की तरह क्षणिकत्व आदि में भी विकल्पवासना को उत्पन्न करना चाहिए। यदि इस दोष से बचने के लिये बौद्ध तर्कशास्त्री कहें कि निर्विकल्पक उसी विषय में विकल्पवासना का प्रबोधक है जिसमें अभ्यास, प्रकरण, बुद्धिपाटव और आर्थित्व होता है, किन्तु क्षणिकत्व में उक्त बातों का सर्वथा अभाव होता है इसलिये निर्विकल्पक ज्ञान क्षणिकत्व में विकल्पवासना का प्रबोधक नहीं होता है। यहाँ पर जैन तार्किक प्रश्न करते हैं कि अभ्यास से अापका क्या तात्पर्य है ? क्या बार-बार दर्शन होना है या अनेक बार विकल्प को उत्पन्न करना है ?" प्रथम विकल्प मानना ठीक नहीं है क्योंकि नीलादि की तरह क्षणिकत्व आदि में बार-बार दर्शन अभ्यास होता है इसलिये यहाँ भी विकल्पवाससा को उत्पन्न करना चाहिये। यदि बहुत बार विकल्प को उत्पन्न करना अभ्यास कहलाता है तो क्षणिकत्व आदि के दर्शन में उसका अभाव क्यों मानते हो ? यदि बौद्ध कहें कि उस विषय में निर्विकल्पक ज्ञान विकल्पवासना १. वही, पृ० ३३ । २. (क) तस्यानुभूतिमात्रेण जनकत्वे क्षणक्षयादौ विकल्पोत्पत्ति प्रसंगः। वही, पृ० ३३ । ___ (ख) अकलङ्ककग्रन्थत्रयम्, प्रस्तावना, पृ० ५० । ३. वही, पृ० ३३ । ४. वही०, पृ० ३३ । ५. अथ कोयमभ्यासोनाम् भूयोदर्शनम्, बहुशो विकल्पोत्पत्तिर्वा ? वही । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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