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प्राचीन भारत में गणतंत्र का आदर्श
डा० देवनारायण शर्मा प्राचीन भारत में हमें दो प्रकार के राज्यों की स्थिति के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं, जिनमें एक को राजाधीन और दूसरे को गणाधीन कहा गया है। राजाधीन को एकाधीन भी कहते थे। जहाँ गण अथवा अनेक व्यक्तियों का शासन होता था, वे ही गणाधीन राज्य कहलाते थे। प्राचीन वाङ्मय से ज्ञात होता है कि पाणिनि और बुद्ध के समय में अनेक गणराज्य थे। तिरहुन से लेकर कपिलवस्तु तक गणराज्यों का विस्तार था। बुद्ध शाक्यगण में उत्पन्न हुए थे। लिच्छवियों का गणराज्य इनमें सबसे अधिक शक्तिशाली था, जिसकी राजधानी वैशाली थी। किन्तु, भारत में गणराज्यों का सर्वाधिक विस्तार उत्तर-पश्चिम के प्रदेशों में हुआ था। इन गणराज्यों को पाणिनि ने आयुध-जीवी संघ कहा है। ये ही अर्थशास्त्र के वार्ता-शस्त्रोपजीवी संघ ज्ञात होते हैं। ये लोग शान्तिकाल में वार्ता या कृषि आदि पर निर्भर रहते थे, किन्तु, युद्धकाल में अपने संविधान के अनुसार योद्धा वनकर संग्राम करते थे। इनमें क्षुद्रक और मालव दो गणराज्यों का विशेष उल्लेख आता है। उन्होंने यवन आक्रमणकारी सिकन्दर से घोर युद्ध किया था। वह मालवों के वाण से तो घायल भी हो गया था। पञ्जाव के उत्तर-पश्चिम और उत्तरपूर्व में भी अनेक छोटे-छोटे गणराज्य थे, उनका एक सिलसिला त्रिगर्त (वर्तमान काँगड़) के पहाड़ी प्रदेश में फैला हुआ था, जिन्हें पर्वतीय संघ कहते थे। दूसरा सिलसिला सिन्धुनदी के दोनों तटों पर गिरिगह्वरों में बसने वाले उन महाबलशाली जातियों का था, जिन्हें प्राचीन काल में ग्रामणीय संघ कहते थे। इनके संविधान का उतना अधिक विकास नहीं हआ, जितना अन्य गणराज्यों का। ये प्रायः उत्सेध-जीवी थे। इनमें भी जो कुछ विकसित थे उन्हें पूग और जो पिछड़े हुये थे व्रात कहा जाता था । गणों का एक तीसरा जत्था सौराष्ट्र में फैला हुआ था। इनमें अंधक-वृष्णियों का संघ बहुत प्रसिद्ध था। कृष्ण इसी संघ के सदस्य थे, इस कारण उन्हें महाभारतकार ने अर्धभोक्ता राजन्य कहा है (शा० पर्व, १२.८१.५) । मालूम पड़ता है कि सिंधु नदी के दोनों तटों पर गणराज्यों की यह शृंखला ऊपर से नीचे को उतरती सौराष्ट्र तक फैल गयी थी, क्योंकि सिंध नामक प्रदेश में भी इस प्रकार के कई गणों का वर्णन मिलता है। इनमें मुचकर्ण, ब्राह्मणक और शूद्रक मुख्य थे। ५०० ई० से ४०० ई० तक पञ्जाव और सिन्धु को घाटो में गणतंत्र राज्यों का ही बोलवाला था। उनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जिनके केवल नाम व्याकरण ग्रन्थों में हमें मिलते हैं, किन्तु उनकी विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती। इस धेणी में वक, दामणि, पार्श्व और कम्बोज हैं। पाणिनि के समय में त्रिगर्त-षष्ठ
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