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________________ जैनदर्शन और तर्क को आधार-भूमि : प्रमाण 277 प्रत्यक्ष प्रमाणः सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष के लक्षण में कहा है कि 'अपरोक्ष रूप से अर्थ का ग्रहण करना प्रत्यक्ष है।'' अकलंकदेव ने न्यायविनिश्चय में 'स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहा है। लोक व्यवहार में प्रत्यक्ष रूप से प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्ष की समस्या का समन्वय जैनदार्शनिकों ने संव्यवहार-प्रत्यक्ष मानकर किया है। इसके भी इन्द्रिय संव्यवहार और अनिन्द्रिय संव्यवहार नाम के दो भेद हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण की मीमांसा के सम्बन्ध में अनेक तर्क-वितर्क किये गये हैं, जिसका तार्किक निष्कर्ष यही है कि जिस तरह पर्वत के एक अंश को देखने पर पूरे पर्वत को व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना जाता है, उसी तरह मतिज्ञान आदि अवयवों को देखकर अवयवीरूप केवलज्ञान, यानी ज्ञान-सामान्य का प्रत्यक्ष भी स्वसंवेदन से हो जाता है । परोक्ष प्रमाण : परोक्ष ज्ञान पाँच प्रकार का होता है-स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । इस तरह परोक्ष प्रमाण की सुनिश्चित सीमा अकलंकदेव ने ही सर्वप्रथम बाँधी है और वह परवर्ती सभी जैनाचार्यों द्वारा यथावत् स्वीकृत रही। संस्कार का उद्बोध ही स्मरण का मूल कारण है। इसका विषय अतीतकालीन पदार्थ है। माणिक्यनन्दि के अनुसार स्मरण तदित्याकारक (वही है) स्मृति को कहते हैं। इतिहास की परम्परा स्मरण के सूत्र से ही प्रवत्तित हुई है, इसलिए स्मरण की प्रमाणता स्वीकृत की जाती है। यहाँ तक कि समस्त जीवन-व्यवहार ही स्मरण पर आधत है। वर्तमान प्रत्यक्ष और अतीत स्मरण से उत्पन्न होने वाला संकलनात्मक ज्ञान प्रत्यभिज्ञान है। इसमें 'यह वही है' इस प्रकार का मानसिक संकलन होता है । जैसे, कोई व्यक्ति गाय की अतीत स्मृति के सहारे गवय की पहचान कर लेता है। व्याप्तिज्ञान को तर्क कहते हैं। तर्क तो ऐसा साधन है, जो अपने साध्यभूत प्रमाण के साथ अविनाभाविसम्वन्ध बनाये रहता है। इसमें प्रत्यक्ष, स्मरण और सादृश्य-प्रत्यभिज्ञान कारण होते हैं। इस सबकी पृष्ठभूमि में 'जहाँ-जहाँ, जब-जब धूम होता है, वहाँ-वहाँ तब-तब अग्नि अवश्य होती है, इस प्रकार का एक मानसिक विकल्प उत्पन्न होता है, जिसे ऊह या तर्क कहते हैं। इस तर्क का क्षेत्र केवल प्रत्यक्ष के विषयभूत साध्य और साधन ही नहीं हैं। अनुमान और आगम के विषयभूत प्रमेयों में भी अन्वयव्यतिरेक के द्वारा अविनाभाव का निश्चय करना भी तर्क का कार्य है। न्यायविनिश्चय के अनुसार, साधन से साध्य का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुमान है। लिंग-ग्रहण और व्याप्ति-स्मरण के पश्चात् होनेवाला ज्ञान १. 'प्रत्यक्षमितरज्ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेच्छया ।'- न्यायावतार, श्लो० ४ २. 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहु : स्पष्टं साकारमञ्जसा।' -न्यायवि०, श्लोक ३ । ३. द्र० परीक्षामुख (वही), ३।३ । ४. द्र० तत्रैव, ३.५ । ५, 'उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ।'--वही, ३१११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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