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________________ जैनदर्शन और तर्क की प्राधार-भूमि : प्रमाण 275 परतः प्रमाण्यवादी महर्षि गौतम और महर्षि कणाद ने प्रमा में इन्द्रिय और सन्निकर्ष को साधकतम या माध्यम माना है, क्योंकि वे परतःप्रमाण्य में विश्वास करते हैं। उदयनाचार्य ने न्यायकुसुमांजलि में लिखा है : 'सोऽपीन्द्रियार्थ सन्निकर्षम् ।' जैन और बौद्ध दार्शनिकों ने ज्ञान को ही प्रमा में साधकतम स्वीकार किया है । इसीलिए कि इन्द्रिय-सन्निकर्षादि स्वयं अचेतन हैं, अतएव वे अज्ञानरूप होने के कारण प्रमिति में साक्षात् करण या प्रामाण्य नहीं हो सकते।' जैनदर्शन के मतानुसार जानना या प्रमारूप क्रिया च कि चेतन है, इसलिए प्रमा में साधकतम प्रमा का गुण ज्ञान ही हो सकता है, अचेतन सन्निकर्ष आदि नहीं। प्रमिति या प्रमा अज्ञानवृत्तिरूपात्मक होती है, इसलिए अज्ञान-निवत्ति में अज्ञान का विरोधी ज्ञान ही करण हो सकता है; जैसे अन्धकार के निवृत्ति-कार्य में अन्धकार का विरोधी प्रकाश ही समर्थ है। इन्द्रिय-सन्निकर्षादि ज्ञान की उत्पत्ति में साक्षात् कारण हो सकते हैं, पर प्रमा में साधकतम तो ज्ञान ही हो सकता है। जैनमत से सांख्यसम्मत इन्द्रिय-व्यापार भी प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकता। इसलिए, अन्ततोगत्वा सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है। प्रामाण्य की ताकिकता प्रमाण के परिवेश में प्रमा, प्रमाता और प्रमेय-इन तीनों की ताकिक वचोयुक्ति भी परम गहन है। प्रमेय यानी समस्त पौद्गलिक जगत् की प्रमाणिकता या प्रमाण्य अस्वीकार्य है। शेष प्रमिति, प्रमाण और प्रमाता द्रव्य की दृष्टि से यद्मपि अभिन्न प्रतीत होते हैं, तथापि पर्याय की दृष्टि से इन तीनों में पारस्परिक भेद स्पष्ट है । आत्मा जव प्रमिति-क्रिया में व्याप्त होती है, तव प्रमाता कहलाती है। इसलिए, कहना न होगा कि आत्मा ही प्रमाता है, प्रात्मा की प्रमिति-क्रिया ही प्रमा है और प्रमाण आत्मा का वह स्वरूप है, जो प्रमितिक्रिया में साधकतम करण बनता है। तो, प्रमाण के द्वारा जिस प्रमेय या पदार्थ को जिस रूप में अवगत किया जाता है, उसका उसी रूप में अव्यभिचारी भाव से प्रतिभासित होना प्रामाण्य है।' अर्थात् प्रमाण का धर्म ही प्रामाण्य है। प्रमाण के व्यपदेश का मूल कारण प्रामाण्य है तथा अप्रमाण के व्यपदेश का मूल कारण अप्रामाण्य । स्याद्वादी-मत में प्रामाण्य हो या अप्रामाण्य, दोनों की ज्ञप्ति कथंचित् स्वतः और कथंचित परतः यानी, अभ्यास-दशा में स्वतः और अनभ्यास-दशा में परतः होती है । परिचित विषय में स्वत: और अपरिचित विषय में परतः प्रामाण्य का ज्ञान होता है। जेसे, परिचित स्थानों के जलाशय आदि में जल की स्थिति के ज्ञान की प्रमाणता की ज्ञप्ति स्वतः होती है, किन्तु अपरिचित स्थानों के जलाशय आदि १. 'सन्निकर्षादेरज्ञानस्य प्रामाण्यमनुपन्नमर्थान्तरवत् ।'-लघीयस्त्रय०, १।३ । २. 'प्रतिभातविषयाव्यभिचारित्वं प्रामाण्यम् ।'-न्यायदीपिका । ३. 'तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च ।'-परीक्षामुख, १।१३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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