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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
ज्ञापक तत्त्व के ही दो रूप हैं । विक्रम की ११वीं शती के जैनदार्शनिक आचार्य माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख' के अनुसार प्रमाण, वस्तु की यथार्थता को सूचित करता है, किन्तु जो अयथार्थ का संकेतक है, उसे प्रमाणाभास कहते हैं । उक्त कारक तत्त्व भी उपादान और निमित्त रूप से दो प्रकार का है । जो स्वयं कार्यरूप में परिणत होता है, वह उपादान है और जो कार्य की उत्पत्ति में सहायक है, वह निमित्त है । जैसे, मिट्टी घड़े का उपादान है, और दण्ड, चक्र, कुम्भकार आदि निमित्त हैं । न्यायदर्शन में जो समवायिकारण है, वही जैनदर्शन का उपादान है । सच पूछिए तो नेयायिक श्रसमवायिकारण भी जैनदार्शनिक उपादान से भिन्न नहीं है । इसी प्रकार, उपर्युक्त उपेय तत्त्व भी दो हैं - ज्ञेय और कार्य । ज्ञापक का जो विषय है, वह ज्ञेय है और कारण के द्वारा जो निष्पाद्य है, वह कार्य है । उपरिविवृत तत्त्वों की सिद्धि के निमित्त प्रमाण की आवश्यकता होती है और प्रमाण के प्रस्तुतीकरण में तर्क अनिवार्य है । संक्षेप में, तात्त्विक ज्ञान तर्कगम्य होता, इसमें सन्देह नहीं ।
विक्रम की प्रथम तृतीय शती के सिद्ध जैनमनीषी प्राचार्य उमास्वाति ने "तत्त्वार्थ सूत्र” में मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल रूप सम्यग्ज्ञान को प्रमाण कहा है। ज्ञान को प्रमाण मानने का आग्रह तभी हुआ, जब तत्त्वज्ञान, मुक्ति के साधन के रूप में तर्कसम्मत सिद्ध हुआ, साथ ही 'सा विद्या या विमुक्तये' या 'ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः,' जैसे जीवनसूत्रों का प्रचार हुआ । इसीके फलस्वरूप तत्त्वज्ञान की प्राप्ति का उपाय तथा तत्त्व के स्वरूप के सम्बन्ध में भी अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क और जिज्ञासाएँ मीमांसाएँ प्रारम्भ हुईं। वैशेषिकों ने ज्ञेय का षट्पदार्थ (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय) के रूप में विभाजन कर उनके तत्त्वज्ञान को उपास्य बताया, तो नैयायिकों ने प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञान पर बल दिया । सांख्यों ने प्रकृति और पुरुष के तत्त्वज्ञान से मुक्ति बताई, तो वेदान्तियों ने ब्रह्मज्ञान में मुक्ति की परिणति देखी । इसी प्रकार, वौद्धों ने मुक्ति के लिये नैरात्म्यज्ञान" को आवश्यक समझा, तो जैनों ने सात तत्त्वों (जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ) के सम्यग्ज्ञान को ही मोक्ष की कारणसामग्री स्वीकार की । इस प्रकार, तत्त्वार्थसूत्र की रचना मुक्ति के साधनभूत ज्ञान को ही अपनी-अपनी पद्धति से प्रमाण मानने की एक लम्बी प्राक्कालीन दार्शनिक परम्परा के समाहार की ओर संकेत करती है ।
' प्रमाणादर्थसंसिद्धिस्तदाभासाद्विवपर्ययः । परीक्षामुख, श्लोक १ ।
२. जैन - जगत् में उमास्वामी और गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वाति के ही नामान्तर माने जाते है | ०
३. 'मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम् । - त० सू० १।९. १० ।
४. 'प्रमाण - प्रमेय - संशय-प्रयोजन दृष्टान्त - सिद्धान्त- अवयव - तर्क निर्णय-वाद- जल्पवितण्डा - हेत्वाभास-छल - जाति - निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगतिः ।'
- न्यायसूत्र १।१।१
धर्मकीति : प्रमाणवार्तिक, १११३८ ।
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