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________________ जैनदर्शन और तर्क की आधार-भूमि : प्रमाण श्री श्रीरञ्जन सूरिदेव भूमिका दार्शनिक चिन्ताधारा में 'प्रमाण' को एक बहुत ही विचारगर्भ विषय माना गया है। यही कारण है कि प्रमाण की निरुक्ति एवं उपपत्ति के सन्दर्भ में विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न प्रकार से अपने तर्क के तुरग दौड़ाये हैं। न केवल जैनदर्शन, अपितु समस्त भारतीय दर्शनों में प्रमाण को भूयिष्ठ मीमांसा हुई है। इसी प्रमाण-मीमांसा के परिप्रेक्ष्य में, दर्शन के ग्रन्थिल तत्त्वों की विवेचना करने या दार्शनिक चिन्तन की गुत्थियों को सुलझाने में तर्क का माध्यम अपनाया गया है क्योंकि, बिना तर्क के दार्शनिक तत्त्वों की समीक्षा सम्भव ही नहीं है। कहना तो यह चाहिए कि दर्शन और तर्क में धुग्रा और आग की तरह या काया और छाया की तरह अविनाभाविसम्बन्ध या व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। जब तक युक्तिपूर्वक अर्थ-निर्णय नहीं होता, तब तक दर्शन की रहस्यमयी कूलिका का भेदन असम्भव है । तत्त्व-चिन्तन में ऊहापोह करने की शक्ति तर्क से ही प्राप्त होती है। इसीलिए, लक्षणकारों ने तर्क का लक्षण प्रस्तुत करते हुए 'तर्क' को 'युक्तिपूर्वक अर्थ-निर्णय' तथा 'ऊहापोहात्मक विचारशक्ति' कहा है।' ___तर्क को हम और थोड़ी शास्त्रीय गम्भीरता से लें। लक्षणकारों ने तर्क की परिभाषा करते हुए कहा है। 'व्याप्यारोपेण व्यापकारोपस्तर्कः।' अर्थात्, व्याप्य के आरोप से जो व्यापक का आरोप होता है, उसे 'तर्क' कहते हैं। जैसे, काया न हो, तो छाया नहीं हो सकती या अग्नि न हो, तो धम भी नहीं हो सकता । यहाँ व्याप्य अग्नि पर व्यापक धूम का आरोप है । ज्ञातव्य है कि व्याप्य और व्यापक पदार्थ का अभाव परस्पर विपरीत स्थिति का द्योतक होता है। जैसे, धूम यदि अग्नि का व्याप्य है, तो अग्नि धूम का व्यापक है। और फिर, यदि धूमाभाव अग्नि के अभाव का व्यापक हो जाता है, तो अग्नि का प्रभाव धूमाभाव का व्याप्य वन जाता है। इसीलिए, प्रकृति में व्याप्य अग्नि के अभाव के आरोप से व्यापक धूम के अभाव का आरोप किया जाता है। धुआँ देखने के वाद उक्त तर्क की सहायता से अनुमान-प्रमाण के द्वारा अग्नि का निश्चय किया जाता है। इसीलिए, तर्क को प्रमाण का अनुग्राहक या सहायक माना जाता है। इसी विषय को सूत्रकार ने प्रकारान्तर से कहा है। 'अविज्ञाततत्त्वेऽर्थे कारणोपपत्तिस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः ।' अर्थात्, जिस पदार्थ का तत्त्व अविज्ञात है, उसके तत्त्वज्ञान के लिए कारण के उपपादन-द्वारा जो ऊहा की जाती है, वही तर्क है। १. द्र० 'लक्षणसंग्रह, तथा 'सर्वतन्त्रसिद्धान्तपदार्थलक्षणसंग्रह' : भिक्षु गौरीशंकर, पृ० क्रमशः ६२ तथा ९२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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