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हिन्दू तथा जैन साधु- श्राचार
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कुटीचक-साधु के आचार-वर्णन से यह स्पष्टतः सिद्ध हो जाता है कि साधु घर में, अपने पुत्र के आश्रय में भी रहकर मुक्तिमार्ग की साधना कर सकता है ' साथ ही इस परम्परा के साधुओं के लिए कुछ अन्न संग्रह की बात भी बतलायी ' गयी है, भले ही वह एक महीना, छः महीना अथवा एक वर्ष के लिए ही क्यों न हो । किन्तु, ठीक इन प्रवृत्तियों के विपरीत श्रमण- साधु-परम्परा मालूम पड़ती है । उनके लिए न श्राश्रम धर्मों का पालन आवश्यक है और न गृहस्थाश्रम की और उनका थोड़ा भी झुकाव ही रहता है । वे साधु अनगारव्रत स्वीकार कर लेने के साथ ही अनिवार्य रूप से गृहत्यागी, एकान्तवासी परिग्रह रहित एवं कठोर तपश्चर्या में रत हो जाते हैं । यही मुख्यहेतु है कि श्रमण-साधुओं का प्रभाव भारत की साधु-परम्परा पर वहुत अधिक पड़ा । अतः यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि भारत में विरक्त एवं अहिंसाव्रतो के रूप में जो भी साधुसम्प्रदाय आज दिखायी देते हैं, उनमें प्रायः सब के सब इस श्रमण परम्परा से प्रभावित हैं । वस्तुतः दूसरा कौन ऐसा एकान्त विरक्त एवं अहिंसक साधु-सम्प्रदाय रहा है, जिसका निर्मल आदर्श उन्हें प्रेरणा-स्रोत के रूप में मिल सकता था ।
इलो० ९५
१७. मनु० अध्याय १८. याज्ञवलक्य, वानप्रस्थ प्रकरण, ४७
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