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________________ शरीर संस्कार का त्याग साधु के लिए शरीर का संस्कार निषिद्ध है । वे मुख, दाँत, नयन, पैर आदि तक नहीं धोते अर्थात् किसी तरह का भी वाह्य मार्जन उनके लिए विहित नहीं । यहाँ तक कि शरीर में यदि किसी तरह की कष्टकर व्याधि भी हो जाये, तब भी श्रमण - साधु उसे मौनपूर्वक सहन ही कर लें, पर किसी तरह की चिकित्सा न करावं, २७ यह आचार्य ता मत है । सांसारिक कथा - वार्त्ता से पूर्ण निवृत्ति साधु अपनी पूर्वावस्था में की गयी रतिक्रीड़ा अथवा धन-जन आदि के विविध भोगों का न स्मरण ही करे और न उसे दूसरे के प्रति कथन ही, उनके द्वारा किसी भी स्थिति में धर्मविरोधी अथवा विनय विहीन भाषा का प्रयोग निन्द्य है | साधु आँखों से देखता हुग्रा तथा कानों से भी मूक होकर विहार करे तथा कभी भी लौकिक कथाओं में प्रवृत्त आत्मबोध के लिए कठोर तपश्चर्या प्राचार्य साधु के लिए कठोर तपस्या के पक्षपाती हैं । वे शायद आत्मा के साक्षात्कार में इस शरीर के प्रति अनुरक्ति को ही प्रधान बाधा मानते हैं । इस कारण यथासंभव तप के द्वारा इस स्थूल शरीर को जर्जरित करते रहना ही आत्मबोध में सहायक सिद्ध हो सकता है, इस ओर उनका संकेत ? " है । २९ Jain Education International आचारांग सूत्र ( भगवान् महावीर की तपश्चर्या से अनुमोदित साधु आचार ) २६. मूलाचार, अनगारभावनाधिकार ७१ २७. २८. २९. हिन्दू तथा जैन साधु आचार जिनेन्द्र का प्रव्रज्या - काल एवं कठोर तपश्चर्या भगवान् महावीर ने जब यह समझ लिया कि यह संसार दुःखों का मूल है, फिर वे आजीवन विविध प्रकार की उपाधियों, उपसर्गों का सामना करते रहे, पर संसार की ओर मुड़कर देखा तक नहीं । उनकी प्रव्रज्या के लिए उपयुक्त समय था हेमन्तऋतु की कड़ाके की सर्दी और उनके उपधान थे स्वच्छ निर्मल आकाश एवं क्षितिज को छूने वाली अनन्त दिशाएँ । भगवान् दिग्वसन थे, फिर कठोर शीत में भी वे अपने हाथों को लम्बित रखकर ध्यान करते । कभी-कभी तो ऐसा भी देखा जाता कि वे ग्रीष्म ऋतु की धूप में और हेमन्त की छाया में बैठ कर ध्यानस्थ रहते । उस पाले की रात में जहाँ अन्य साधु निवासस्थान ढूँढते, वस्त्रग्रहण करने की इच्छा रखते एवं अग्नि प्रज्वलित कर अपने शरीर "" " " 27 وو 17 11 सुनता हुआ न हो । "" 261 "1 ७३ ८७, ८८ ९७, ९८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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