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260 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 परम विशुद्ध तथा सभी दोषों से मुक्त हो और वह भी अन्य के द्वारा पाणिपात्र ६ में ही दिया जाये, तब मुनि उसे ग्रहण करे। मुनि द्वारा भिक्षा-ग्रहण
यति के द्वारा भिक्षा निमित्त हिंडन की ओर आचार्य ने ध्यान आकृष्ट करते हुए, यह स्पष्ट कह दिया है कि साधु बिना यह जाने हुए कि अमुक स्थान में गृहस्थ उसकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, वहाँ उसका स्वागत होगा तथा अमुक दिशा में उसकी उपेक्षा होगी, सामान्य रूप से घर के कतारों से उच्च, नीच, धनी, दरिद्र आदि को समान दृष्टि से देखता हुआ भिक्षा ग्रहण करे। उसके लिए शीतल, उष्ण, रुक्ष, स्निग्ध आदि का बिना विचार किये ही अस्वादपूर्वक भोजन स्वीकार करना कर्तव्य है। क्योंकि वह मुनि इस पंचतत्त्व से निर्मित शरीर का धारण धर्मपालन के निमित्त तथा धर्मपालन मुक्ति-प्राप्ति हेतु करता है। अतः भिक्षा-ग्रहण का एकमात्र लक्ष्य शरीर धारण करना ही है और कुछ नहीं। श्रमण मुनि न भिक्षा प्राप्त होने पर संतुष्ट और न उसकी अप्राप्ति की स्थिति में असन्तुष्ट ही होते हैं। उनके लिए ये दोनों ही स्थितियाँ समान हैं। इस कारण वे सदा मध्यस्थ एवं अनाकुल२° रूप से विहार करते हैं। वे कभी भी किसी गृहस्थ से दीनतापूर्वक भिक्षा की याचना नहीं करते। ऐसी स्थिति में उन्हें खाली हाथ भी लौटना पड़ सकता है, पर वे निर्विकार चित्त से मौन धारण२१ हो किये रहते हैं। ये साधु भोजन स्वीकार करने में बड़े सावधान रहते हैं। बासी, विवर्ण तथा अप्रासुक२२ भोजन इन्हें कभी ग्राह्य नहीं होता। मुनि को शास्त्रीय योग्यता
साधुओं के उपर्युक्त प्रकार से भोजन, आचरणादि का वर्णन करते हए प्राचार्य ने उनकी शास्त्रीय योग्यना पर भी जोर दिया है। उनके अनुसार साधु को केवल भोजन आदि की ही शुद्धि नहीं अपितु ज्ञान की शुद्धि भी रखनी चाहिए । विवेकी मुनि के लिए आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग आदि के साथ चतुर्दश पूर्वो का भी ज्ञान होना आवश्यक है। वे यति के लिए स्वभावतः आचार्य, उपाध्याय आदि के उपदेशों को धारण-ग्रहण करने में समर्थ तदनुसार अक्षरशः आचरण करनेवाला, वीजबुद्धि अर्थात् किसी भी विषय को एकाध बीजरूप प्रधान अक्षरों के सुन लेने पर ही समस्त रूप से समझनेवाला श्रुतों में पारगामी विद्वान२४ होना अनिवार्य मानते हैं। पर, इस ज्ञान-गरिमा के बाद भी श्रमण को मानरहित, अवित, क्रोधरहित, मृदुस्वभावी, स्व-परसमयज्ञाता एवं विनीत होना चाहिए।
१६. मूलाचार, अनगारभावनाधिकार ४५ २१. मूलाचार, अनगारभावनाधिकार ५१,५२
४७ २२.
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४९ ५०
२४. २५.
२०.
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