SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 248 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 १ करना चाहिए | उसके लिए शहद, मांस तथा भूमि में उत्पन्न पुष्प आदि सभी त्याज्य' हैं । मनु ने मुनि को आश्विन मास में सभी पूर्वसंचित धान्यों शाक-मूल-फलों, यहाँ तक कि शरीर में धारण किये गये जीर्णवस्त्रखण्ड १० को भी छोड़ देने का आदेश छिया है । अफालकृष्ट भूमि के धान्य ही उनकी दृष्टि में तपस्वी के लिए ग्राह्य हैं । फालकृष्ट भूमि से उत्पन्न अन्न वनान्तर्गत का भी यहाँ तक कि उत्सृष्ट" " भी ग्राह्य नहीं है । भले ही इसके फलस्वरूप मुनि को भूखा ही क्यों न रह जाना पड़े । सामर्थ्य के अनुसार प्राप्त अन्न को भी रात अथवा दिन के चतुर्थ अथवा अष्टम काल में ही वानप्रस्थी ग्रहण करे । यहाँ अन्य कालों का निषेध किया गया है । तपस्वी उस अन्न को भी कृष्ण पक्ष में एक-एक पिण्ड घटाता हुआ एवं शुक्ल पक्ष में एक-एक पिण्ड वढाता हुआ ग्रहणकर चान्द्रायण व्रत के द्वारा जीवन-यापन करे । इसके विकल्प में कालपक्व १४ तथा वृक्ष 'से गिरे हुए फल के खाने की व्यवस्था है । २ मुनि की दिनचर्या जिस प्रकार ये आहारग्रहण करने आदि के सम्बन्ध के कठोर नियम मनु ने बताये हैं ठीक इसी प्रकार मुनि की दिनचर्या भी सुकर नहीं गिनायी है । तपस्वी के लिए भूमि पर लोटते हुए चलना, पैरों के अग्रभाग से दिन भर खड़ा रहना, संध्या, प्रातः एवं मध्याह्न में स्नान करना तथा इनसे भी बढ़ कर ग्रीष्म ऋतु में पंचाग्नि के बीच, वर्षा में खुले आकाश के नीचे एवं हेमन्त ऋतु में आ वस्त्र धारण कर तपोवृद्धि करने का विधान है । इस पर भी तीनों कालों में स्नान क्रिया से निवृत्त होकर देवता, ऋषि एवं पितरों का तर्पण एवं अन्यान्य उग्रतर व्रतों का पालन करते हुए अपने शरीर को कृश बनाना '६ का धर्म बताया गया है । १५ यह भी तपस्वी उपर्युक्त नियमों के अलावा भी वानप्रस्थी के लिए निम्न प्रकार के कर्मकलाप वर्णित हैं : शास्त्रविधि के अनुसार श्रोताग्नियों को अपने भीतर स्थापित करना, लौकिक अग्नि एवं गृह से रहित होकर मात्र मूल - फलों का भोजन करना, सुख के प्रयोजनों में अनायास रह कर ब्रह्मचर्य का पालन करना, आश्रयस्थानों में ममता-रहित हो वृक्ष के नीचे भूमि पर शयन करना आदि । वानप्रस्थी को शरीर धारण मात्र के योग्य भिक्षा वानप्रस्थ ब्राह्मणों' " से अथवा वनवासी गृहस्थ ब्राह्मणों से अथवा उपर्युक्त दोनों के अभाव में ग्रामवासियों से भी ग्रहण करनी चाहिए। ७ ९. मनु० अध्याय ६।१४ १०. ६।१५ ११. ६।१६ १२. ६।१९ १३. ६।२० " 13 11 "" Jain Education International 13 " "" "7 १४. मनु० अध्याय ६।२१ १५. १६. १७. 37 " 21 For Private & Personal Use Only 13 31 23 ६२२, २३ ६।२४ ६।२७, २८ www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy