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________________ हिन्दू तथा जैन साधु-आचार डा० देवनारायण शर्मा सामान्यतः हम देखते हैं कि संसार में जितने भी धर्म या धर्मशास्त्र हैं, उनका एकमात्र उद्देश्य मनुष्य को मानसिक संतुलन प्रदान करना है, दुविधा, द्वन्द्व, वेदना और शोक से उसे मुक्त करना है एवं उसके भीतर एक ऐसी शान्ति को उत्पन्न करना है, जिसे सन्देह विचलित न कर सके, जिसे शंकायें हिला न सकें। वस्तुतः धर्म वही है, जिससे सांसारिक अभ्युदय और आध्यात्मिक उन्नति दोनों ही प्राप्त होते हैं। 'आचार' शब्द प्रायः 'धर्म' का समानार्थक शब्द ही माना जाता है। मनु ने "दशकं धर्मलक्षणम्" के द्वारा आचार को ही विशेष स्पष्ट करने की चेष्टा की है। जैन धर्म और बौद्धधर्म में तो इसका महत्त्व और भी अधिक है। वहाँ यह आचार विविध रूपों में निरूपित किया गया है। अहिंसा, निष्कामता, मनोविजय, आत्मसंयम जैसी सदाचरण सम्बन्धी वातों की ओर उन्होंने विशेष ध्यान दिया है। क्षमा, शील, प्रज्ञा, मैत्री, सत्य, वीर्य आदि वोधिसत्व के आदर्शगुण माने गये हैं। इसी प्रकार थोड़े से शब्दभेद के साथ प्रायः इन्हीं को अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, संतोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान के नाम देकर योगदर्शन ने भी अपने यहाँ यमनियमों के रूप में स्थान दिया है। स्मतियों ने तो "आचारः परमोधर्मः" इस कथन के द्वारा धर्म का स्पष्ट अर्थ ही "प्राचार प्रधान कर्म' निर्धारित कर दिया। हम देखते हैं कि जैनधर्म में “अहिंसा परमोधर्मः" इस कथन के द्वारा अहिंसाप्रधान कर्म को ही धर्म कहा गया है। इस तरह इस निष्कर्ष पर हम आसानी से पहुँच सकते हैं कि अहिंसा अथवा आचारप्रधान कर्म को ही भारतीय परम्परा में धर्म की संज्ञा दी गयी है। जैनधर्म में अहिंसा के अतिरिक्त जो सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये चार अन्य व्रतों के नाम भी लिये गये हैं, वस्तुतः वे स्वतंत्र अथवा पथक सत्तावाले नहीं है, अपितु अहिंसा के ही पूरक हैं। इसे यों भी कहा जा सकता है कि अहिंसा के पूर्ण पालन के लिये ही इन व्रतों की साधना आवश्यक मानी गयी है। इस प्रकार अब यह समझने में भ्रम का कोई स्थान ही नहीं रह जाता कि किसी व्यक्ति, समाज अथवा राष्ट्र के जीवन में 'आचार' का कितना अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। . हिन्दू और जैन दोनों ही परम्पराओं में अहिंसा, अमषा, अस्तेय, अमैथुन, और अपरिग्रह, इन पंच व्रतों को ही धर्म का मूल स्तम्भ माना गया है। इन व्रतों के स्वरूप पर विचार करने से एक तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इनके द्वारा मनुष्य की उन वत्तियों का नियन्त्रण करने का प्रयत्न किया गया है, जो समाज में मुख्यरूप से बैर एवं विरोध के कारण हुआ करती हैं। दूसरी यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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