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विदेशी विद्वानों का जनविद्या को योगदान
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होने लगे थे । इस समय के विद्वानों में जार्ज ग्रियर्सन का नाम विशेष उल्लेखनीय है । सामान्य भाषा - विज्ञान के क्षेत्र में उनका जो योगदान है, उतना ही प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के अध्ययन के क्षेत्र में भी ।
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सन् १९०६ में ग्रियर्सन ने पैशाची प्राकृत के सम्बन्ध में 'द पैशाची लेंग्वेज आफ नार्थ-वेस्टर्न इण्डिया' नाम से एक निबन्ध लिखा, जो लन्दन से छपा था । ' १६६९ ई० में दिल्ली से जिसका दूसरा संस्करण निकला है । पैशाची प्राकृत की उत्पत्ति एवं उसका अन्य भाषाओं के साथ क्या सम्बन्ध है, इस विषय पर आपने विशेष अध्ययन कर १६१२ ई० में 'द डिरिवेशन आफ पैशाची एण्ड इट्स रिलेशन टु अदर लेंग्वेज' नामक निबन्ध के रूप में प्रकाशित किया । १९१३ ई० में आपने GEET प्राकृत के सम्बन्ध में अध्ययन प्रस्तुत किया, ' अपभ्रंश एकार्डिंग टू मार्कण्डेय एण्ड ढक्की प्राकृत' । इनके अतिरिक्त ग्रियर्सन का प्राकृत के भेदप्रभेदों के सम्बन्ध में अध्ययन निरन्तर चलता रहा है । 'द प्राकृत विभाषाज ४ 'एन अरक वर्ड क्वेटेड वाय हेमचन्द्र", 'प्राकृत धात्वादेश, ' ' पेशाची " आदि निबन्ध प्राकृत भाषा एवं अपभ्रंश के अध्ययन के प्रति ग्रियर्सन की अभिरुचि को प्रगट करते हैं ।
बीसवीं शताब्दी के दूसरे-तीसरे दशक तक प्राकृत भाषा का अध्ययन कई पाश्चात्य विद्वानों द्वारा किया गया है । भाषाविज्ञान के अध्ययन के लिए इस समय भारतीय भाषाओं का अध्यन करना आवश्यक समझा जाने लगा था । कुछ विद्वानों ने तो प्राकृत के व्याकरण ग्रन्थों का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन किया है । हुल्टजश्च ने सिंहराज के 'प्राकृतरूपावतार' का सम्पादन किया, जो सन् १६०९ में लन्दन से छपा ।
जैनविद्या का अध्ययन करनेवाले विद्वानों में इस समय के प्रसिद्ध विद्वान् डा० हर्मन जैकोबी थे, जिन्होंने प्राकृत वाङ्मय का विशेष अनुशीलन किया है । जैकोबी ने 'ओसगे बेत्ते एत्से लिंगन इन महाराष्ट्री' (महाराष्ट्री' 'प्राकृत' ) की को चुनी हुई कहानियाँ) नाम से एक पाठ्य-पुस्तक तैयार की, जो सन् १८८६ ई० लिपजिग (जर्मनी) से प्रकाशित हुई । इसके इण्ट्रोडक्शन में उन्होंने महाराष्ट्री प्राकृत के सम्बन्ध में विशद् विवेचन किया है तथा वैदिक भाषाओं से अधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं तक के विकास को प्रस्तुत किया : जैकोबी ने अपने द्वारा सम्पादित 'प्राकृत ग्रन्थों की भूमिकाओं' के अतिरिक्त प्राकृत भाषा के सम्वन्ध में स्वतन्त्र निवन्ध भी लिखे हैं । सन १९१२-१३ में उन्होंने
१. Asiatic Society Monographs Vol. 8, London, 1906.
२. Journal of the German Oriental Society, 1912.
३. Journal of the Royal Asiatic Society, 1913, p. 875-883.
४. The Indian Antiquary, 1918.
५. Journal of the Royal Asiatic Society, London, 1919.
६. Memories of the Asiatic Society of Bengal, Vol. 8. No. 2, 1924, Sir Ashutosh Mukarjee silver Jubilee Vol. 3, 1925, p. 119-141
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