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________________ तीर्थंकर महावीर का प्रतिमा निरूपण मारूति नन्दन प्रसाद तिवारी ईश्वर की सत्ता में अविश्वास करनेवाले जैन केवल जैनमत के प्रवर्तकोंतीर्थंकरों (जिनों)-की ही उपासना करते हैं, जो समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त होने के साथ ही सर्वशक्तिमान और आनन्दमय भी होते हैं। जैनों का ऐसा विश्वास है कि बंधनग्रस्त समस्त जीव उनके द्वारा प्रशस्त मार्ग का अनुकरण कर उन्हीं की तरह सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर पूर्णज्ञान, शक्ति एवं आनन्द के प्रतीक बन सकते हैं। जैनधर्म की मान्यता है कि इस अवसर्पिणी (युग) में कुल चौवीस तीर्थंकर अवतरित हुए हैं, जिनमें प्रथम ऋषभनाथ (ग्रादिनाथ) और अन्तिम महावीर (वर्धमान) हैं । तोर्थंकरों को ऐतिहासिकता की दृष्टि से मात्र अन्तिम दो तीर्थंकरों, पार्श्वनाथ और महावोर, की हो ऐतिहासिकता असंदिग्ध है। सिन्धु-घाटो (ई०पू० २३००-१७५०) से प्राप्त होनेवाली कुछ नग्न एवं कायोत्सर्ग मुद्रा के समान दोनों हाथ नीचे लटकाए खड़ी मूर्तियों को कुछ विद्वानों ने तीर्थंकर-चित्रण से सम्वद्ध कर जैनधर्म में मूर्तिपूजा की प्राचीनता को काफी पीछे ल जाने का प्रयास किया है, जो निश्चित प्रमाणों के अभाव में सम्भावना से अधिक कुछ नहीं है। जैनधर्म में मूर्तिपूजा और मूर्ति निर्माण की परम्परा का प्रादुर्भाव निश्चित रूप से मौर्य-शंग युग में हो गया था। इसका प्रमाण है पटना के समीपस्थ लौहानीपुर से प्राप्त मौर्य-शुंग-युगीन चमकदार आलेप से युक्त तीर्थंकरों को निर्वस्त्र एवं वायोत्सर्ग प्रतिमाए", जो सम्प्रति पटना संग्रहालय में संग्रहीत हैं। अभिलेखिकी प्रमाणों द्वारा जैनों के मध्य मूर्तिपूजा के प्राक्-मौर्यकाल में भी प्रचलित रहे होने की पुष्टि होती है। कलिंग नरेश खारवेल के ई०पू० लगभग द्वितीय शती के हाथी गुम्फा शिलालेख में उल्लेख है कि नन्दवंश के राज्यकाल (ई०पू० चौथी-पांचवींशती) में एक जिन-प्रतिमा को नन्दराज कलिंग से उठाकर ले पाये थे, जिसे तीन शती वाद खारवेल पुनः कलिंग वापस ले आये। फिर भी जैनों में मूर्ति निर्माण की निश्चित परम्परा शुग-कुषाण युग में ही प्रचलित हुई, जिसका परवर्ती युगों में क्रमशः विकास और पल्लवन होता रहा । ___ कुषाण युग में आयागपट्टों (वर्गाकारपूजा शिला-फलक) पर प्राप्त संक्षिप्त तीर्थकर आकृतियों के अतिरिक्त तीर्थंकरों को स्वतन्त्र मतियाँ भी वहुतायत से निर्मित हुईं। कुपाण युग में केवल सर्पफणों से युक्त पार्श्वनाथ और स्कन्धों पर लटकते केशों से अलंकृत ऋषभनाथ के स्वरूप का ही निर्धारण हा था । गुप्तयुग के अन्त तक नेमिनाथ एवं महावीर के लांछनों (चिह्न) का भी निर्धारण निश्चित रूप से हो गया था। मध्ययुग के प्रारम्भ में हवीं-१०वीं शती तक सभी तीर्थंकरों के लांछनों के निर्धारण के साथ ही प्रत्येक तीर्थंकर के साथ एक यक्ष-यक्षिणी को भी सम्बद्ध किया जा चुका था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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