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'चरिउ' और 'मानस
213 'चरिउ' के राम जिनमुनियों की वंदनाभक्ति करते हैं, जव कि मानस के राम वैदिक ऋषियों की। 'चरिउ' के 'पात्र' अंत में जिन-दीक्षा ग्रहण करते हैं, जब कि मानस के पात्र राम के प्रति समर्पित हो रहते हैं। स्वयंभू के राम प्रकृत पुरुष होकर भी तप कर मोक्ष प्राप्त करते हैं। तुलसी के राम अलौकिक होते हुए भी प्राकतजन की तरह आचरण करते हैं। मानस का कवि सीता के अपमान-क्षणों 'विष' खुद पो लेता है, चरिउ का कवि अपनी सीता को वह 'तेज देता है जिससे वह राम को फटकारती हुई कहती है : "हनुमान, तुम पत्थरहृदय राम का नाम न लो। उन्होंने मुझे जो पीड़ा पहुँचाई है, उसे हजारों वर्षों के मेघ भी शांत नहीं कर सकते । आदमी चाहे जो हो, परन्तु स्त्रियाँ मृत्यु तक उसका साथ नहीं छोड़तीं। पवित्र और कुलीन नर्बदा नदी रेत लकड़ी और पानी वहाती हुई समुद्र के पास पहुँचती है, पर उस अभागिन को क्या मिलता है ? खारा पानी ?"
___ दोनों कवियों का उद्देश्य है अपनी स्वीकृत आस्था को अनुभूति कराना; स्वयंभू की आस्था है कि आत्मा अनेक और स्वतंत्र हैं, वह स्वयं कर्ता और भोक्ता हैं । रागचेतना से वह जड़ से बंधी हुई है, उससे छटना ही, मुक्ति है। इसके लिए विवेक जरूरी है, विवेक के लिए वीतराग दृष्टि अर्थात् जीवन के सुख-दुःख के प्रति तटस्थदृष्टि आवश्यक है। जिनभक्ति इसमें सहायक है। तुलसी की अस्था है कि राम व्यक्त अव्यक्त विश्व में सर्वत्र समान रूप से व्यापक हैं, और प्रेम से ही उनका साक्षात्कार संभव है। भक्तिशून्य ज्ञान व्यर्थ है। उनकी भक्ति का धय भक्ति स्वयं हैं, क्योंकि सगुणभक्त मोक्ष स्वीकार नहीं करते। इस प्रकार, उनका चरमतम ध्येय ईश्वर के व्यक्त स्वरूप 'दृश्य जगत्' में रमन करना है ? फिर भी, व्यक्तिगत स्तर पर तुलसी भक्ति के लिए विषयों से विरति जरूरी मानते हैं, जव कि स्वयंभू विरक्ति के लिए भक्ति ।" काव्यसौंदर्य :
दोनों कवियों के लिए काव्य-सौंदर्य की अपनी-अपनी धारणा है। एक आत्माभिव्यक्ति में सौंदर्य मानता है, दूसरा सगुण-साकार को लीलाओं में । उनके काव्यों में लोक और शास्त्रगत काव्य-परंपराओं का निर्वाह है; अप्रस्तुत विधान में यह बात विशेष रूप से द्रष्टव्य है। मानस में 'चरिउ' की अपेक्षा प्रकृति-चित्रण कम है, दोनों चरितकाव्य हैं और अपनी व्यापक अनुभूति और उदात्त कल्पना में महाकाव्यों की श्रेणि में आते हैं ? जहाँ तक युगीन यथार्थ का संबंध है, दोनों में वह अनुपस्थित है। 'चरिउ' में स्वदेशी सम्मतवादी समाज के आदर्शों की छाप है। 'मानस' में यह छाप अप्रत्यक्ष रूप से है। स्वयंभू के अनुसार प्रादर्श राजा वह है-जो कठोर न हो, न्याय से प्रजा का पालन करे और देवताओं, ब्राह्मणों और श्रमणों को पीड़ा न दें। इसका अर्थ है कि समकालीन राजसत्ता इन्हें भी पीड़ा देने से नहीं चूकती थी। सामान्य जनता की तो वात ही छोड़िए। स्वयंभू ने चीजों की मिलावट का उल्लेख किया है।
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