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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2
ही नहीं, एक वौद्ध भिक्षुणी होने के नाते उसने उस ब्राह्मण को बुद्ध की शरण में जाने को कहा ।
हर प्रकार के बाह्याचार और आंडवर के विरुद्ध आलोचना का यह स्वर “धम्मपद" और "सुत्तनिपात" जैसे प्राचीन पालिग्रन्थों में मुखर हो उठा है । ये दोनों ग्रन्थ सुत्तपिटक के पंचम और अंतिम निकाय - खुद्दक निकाय के क्रमशः द्वितीय और पंचम ग्रंथ हैं । इससे इनकी प्राचीनता का आभास मिल सकता है क्योंकि त्रिपिटक बुद्ध द्वारा उपविष्ट प्रवचनों का संकलन है । "धम्मपद" में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि किसी ब्राह्मणी की योनि से उत्पन्न होनेवाले व्यक्ति को ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता । यदि वह सम्पन्न है तो अन्य लोग उसे 'भो' कहकर भले ही सम्बोधित करें पर वास्तविक ब्राह्मण तो वही है जो अपरिग्रही और त्यागी है । जो सारे बंधनों को काटता है, भय नहीं खाता तथा जो संग और आसक्ति से विरत रहता है वही ब्राह्मण है । " जटा, गोत्र और जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता । सत्य और धर्म से समन्वित व्यक्ति ही पवित्र ब्राह्मण है । जिसका अन्तःकरण राग और मल से युक्त है । ऐसा दुर्बुद्धि प्राणी यदि जटा धारण करे तथा मृगचर्म पहने तो इससे क्या लाभ ? केवल बाहरी शरीर को धोने से कुछ होने को नहीं है । " जिसकी सेना का सेनापति है वही सच्चा ब्राह्मण है । " ब्राहण तो वह है जिसकी इच्छाएँ मिट गईं तथा जो आशा और आसक्ति से रहित हो गया ।
क्षमावल
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" धम्मपद" के इन उद्गारों की प्रतिध्वनि सरह और कबीर की उक्तियों में मिलती है । ढोंगी ब्राह्मण का चित्र खींचकर वास्तविक ब्राह्मण की ओर जो संकेत सिद्धों और कबीर ने किया है बह धम्मपद' में व्यक्त विचारों से आश्चर्यजनक साम्य रखता है । विशेष कर "कबीर ग्रंथावली" में दिए गए शाहंशाह के लक्षण “धम्मपद” की चार सौ दसवीं गाथा में दिए गए ब्राह्मण के लक्षण से हूबहू मिलते हैं । पाप के भार से जीवन की यह नौका दवी जा रही है । जब उसे उलोचकर हल्का किया जायगा तथा जव राग और द्वेष छिन्न हो जायेंगे तभी
१.
२.
न चाहं ब्राह्मणं ब्रूमि योनिजं मत्तिसम्भवं ।
'भो वादि' नाम सो होति सचे होति सकिंचनो ||
अकिंचनं अनादानं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ -- धम्पपद - ३९६ - ५० - १६२.
सब्बसञोजनं छत्वा यो वे न परितस्सति ।
सङ्गातिगं विसञ्जु त्तं तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ - वही ३९७ - पृ० - १६३. न जटाहि नगोत्तेहि न जच्चा होति ब्राह्मणो ।
३.
यहि सच्चंच धम्मो च सो सुची सो च ब्राह्मणो ॥ - वही - ३९३ - पृ० – १६१.
किं ते जटाहि दुम्मेध ! किं ते अजिनसाटिया ।
अब्भन्तरं ते गहनं बहिरं परिमज्जति ॥ - वही - ३९४ - पृ० - १६१. ५. वही – ३९९ -- पृ०--१६४.
६.
वही - ४१० पृ० - १६७.
४.
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