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150 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 से सर्वथा भिन्न है। महावीर ने मोक्ष को चरम लक्ष्य माना है और उसको प्राप्त करने का एकमात्र साधन कार्मों से छटकारा पाना है। इसके लिए संकर और निर्जरा की वात वे बताते हैं तथा पाँच महाव्रतों का उपदेश देते हैं। अहिंसा बौद्ध और जैनधर्म का भूषण है। उधर बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त ने दर्शन के क्षेत्र में एक नया अध्याय खोला। किन्तु इतना सब होते हुए भी बौद्धों और जैनों ने जो सबसे बड़ा काम किया वह वेदों, विधि-विधान और कर्मकाण्ड के विरुद्ध बगावत की आवाज को बुलंद करना है। यज्ञों में होने वाली अमानुसिक हिंसा की घोर निन्दा उन्होंने की। उनके विचार में मोक्ष के लिए कुछ नैतिक आचरणों का पालन करने की आवश्यकता है। इसीलिए बुद्ध ने शीलाचार का उपदेश दिया। आगे चलकर तंत्रयान में वौद्ध धर्म के इन कठोर सिद्धान्तों की घोर प्रतिक्रिया हुई और अनेकानेक देवी-देवताओं से इस धर्म का आँगन भर गया। फिर तो विधि-विधान और कर्मकाण्ड भी प्रारंभ हो गये। किन्तु यह तो बौद्ध धर्म का विकृत रूप है। बुद्ध और महावीर ने इन बातों को कभी पसंद नहीं किया। तभी तो ब्रह्म में विश्वास रखनेवालों की तुलना बुद्ध ने उस मूर्ख मनुष्य से की है जो किसी परम सुन्दर स्त्री की कामना करता है पर वह उस स्त्री या उसके निवासस्थान आदि के बारे में कुछ भी नहीं जानता है।' इस एक उदाहरण से बौद्ध धर्म के वास्तविक स्वरूप की जानकारी हो सकती है।
वौद्धों ने हिन्दुनों की वर्णव्यवस्था और जातिवाद का खलकर विरोध किया। अश्वघोष ने तो मानो इनके विरुद्ध एक अभियान प्रारंभ कर दिया। उन्होंने "मनुसंहिता" और महाभारत जैसे ग्रंथों के आधार पर "वज्रसूची' में वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद का जबरदस्त खंडन किया है । उन्होंने यह प्रमाणित करना चाहा है कि ब्राह्मण कभी सबसे श्रेष्ठ नहीं हो सकते क्योंकि जन्म के आधार पर कोई बड़ा-छोटा नहीं हो सकता। बुद्ध ने जहाँ कहीं भी श्रमण और ब्राह्मण की चर्चा की है वहाँ उनका लक्ष्य ऐसे श्रमण-ब्राह्मण से है जो धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं और भ्रम-जाल में पड़े रहते हैं। इसीलिए ब्रह्मा, ब्राह्मण और तीर्थ-इन सबकी कटु आलोचना बुद्ध ने की है। लोग तीर्थों में जाकर स्नान कर अपने को पवित्र हुआ मानते हैं पर वास्तविक तीर्थ स्नान तो तभी होता है जब साधक का हृदय पवित्र हो। यह तभी संभव है जव साधक शीलसंपन्न हो । बुद्ध की शिक्षा का आधार शील, समाधि और प्रज्ञा है। इनमें शील समाधि और प्रज्ञा के लिए आधारशिला का काम करता है। शील सबसे बड़ा तीर्थ है और इसके गुणों से युक्त व्यक्ति सबसे बड़ा तीथिक । गंगा, यमुना, सरयु, सरस्वती, अचिरवती आदि नदियों के जल में स्नान करने से कोई अपना पाप नहीं धो सकता। इसके लिए शील के जल से अपने आपको पवित्र करना १. दीघनिकाय-सं०---भिक्षु जगदीश काश्यप-भाग-१ -पोट्ठपादसुत्त,
पृ० १६०.
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