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________________ सिद्ध साहित्य का मूल स्रोत 149 विष्णुपुराण में कहा गया है - हिंसा से भी धर्म होता है - यह बात किसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है । अग्नि में हवि जलाने से फल होगा - यह भी बच्चों की-सी बात है । अनेक यज्ञों के द्वारा देवत्व लाभ करके यदि इन्द्र को शमी आदि काष्ठ का ही भोजन करना पड़ता है तो इससे तो पत्ता खानेवाला पशु ही अच्छा है । यदि यज्ञ में बलि किये गए पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है तो यजमान अपने पिता को ही क्यों नहीं मार डालता ? यदि किसी अन्य पुरुष के भोजन करने से भी किसी पुरुष की तृप्ति हो सकती है तो विदेश यात्रा के समय खाद्य-पदार्थ ले जाने का परिश्रम करने की क्या आवश्यकता है ? पुत्रगण घर पर ही श्राद्ध कर दिया करें, अर्थात् दूसरों को खिला दिया करे ।' इससे तो यही सिद्ध होता है कि एक ही प्रकार की विचारधारा भिन्न युगों और ग्रन्थों में व्यक्त हुई है । वे ब्राह्मणों को काँइयाँ और ढोंगी बताते हैं और कहते हैं कि अपनी जीविका के साधन को जीवित रखने के लिए उन्होंने श्राद्ध और पूजा के अनेक प्रकार के विधि-विधानों का आविष्कार किया है । अर्थहीन मन्त्रों का वे जप करते है और लोगों को मूर्ख बनाते हैं। भला इससे अधिक घृणास्पद और लज्जाजनक बात और क्या हो सकती है कि अश्वयज्ञ में बलि देनेवाले की पत्नी घोड़े के लिंग को अपने हाथों में पकड़े । मांसभक्षी ब्राह्मणों ने स्वयं मांस खाना चाहा और इसीलिये वेदों में मांस की बात कहीं गई है । मांस खाने का विधान राक्षसों ( मांस के प्रेमियों) का दिया हुआ है । ऊपर जो कुछ कहा गया उससे स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक अधार्मिक थे । पर बौद्ध और जैन इसके विपरीत अधार्मिक नहीं थे हालाकि वे भी अनीश्वरवादी थे । वौद्धों और जैनों के युग में आकर विधि-विधान और कर्मकाण्ड की अपेक्षा धर्म में मानवतावादी दृष्टिकोण प्रधान हो गया । अब नैतिकता के ऊपर अधिक बल दिया जाने लगा । दार्शनिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से यद्यपि जैनधर्म और वौद्ध धर्म में स्पष्ट अन्तर है तथापि वेद और ईश्वर की सत्ता को नहीं मानने में दोनों ही एकमत हैं। दोनों ने नैतिक गुणों -- विशेषकर अहिंसा पर बल दिया है। जैनधर्म का स्वरूप उपनिषद् और ब्राह्मण में निहित धर्म के स्वरूप निहितस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते । स्वपिता यजमानेन किन्नु तस्मान्न हन्यते ॥ तृप्त जायते पुंसो भुक्तमन्येन चेत्ततः । कुर्याच्छ्राद्धं श्रमायान्तं न वहेयुः प्रवासिनः ॥ नैतद्युक्ति सहं वाक्यं हिंसा धर्माय चेष्यते । हवींष्यनलदग्धानि फलायेत्यर्भकोदितम् ॥ यज्ञैरनेकैर्देवत्वमवाप्येन्द्रेण भुज्यते । शम्यादि यदि चेत्काष्ठं तद्वरं पत्रभुकुशुः ॥ - विष्णुपुराण - ३/१८/२५-२८. २. सर्वदर्शन संग्रह - सं० म०म० वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर - भाग - १, पृ० १५. १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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