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________________ संतकम्मपाहुड और छक्खंडागम 121 और वन्धन अनुयोग के अन्तर्गत बन्ध और वन्धनीय अनुयोगद्वारों का वर्गणा खण्ड में, बन्ध विधान नामक अनुयोगद्वार का महावन्ध में, बन्धक अनुयोग का खुद्दाबन्ध में विस्तार से कथन किया है। इन छः अनुयोग द्वारों से शेष वचे अठारह अनुयोगों का कथन संतकम्म में किया है।' डाहीरालाल जी को मूड़ विद्री से जो परिचय प्राप्त हुआ था जिसे महावन्ध का समझ लिया गया था वह इस सत्कर्मपंजिका से ही सम्बद्ध था किन्तु उसमें जो उद्धरण उद्धत है उसमें अन्तिम वाक्य कि 'शेष' अठारह अनुयोगों का कथन संतकम्म में है छुट गया है। इसी से डा० सा० ने लिखा है- 'इससे जान पड़ता है कि महाधवल का मूल ग्रन्थ संतकम्म है' और उसमें महाकर्मप्रकृतिपाहुड के चौबीस अनुयोग द्वारों में से वेदना और वर्गणा खण्ड में वर्णित प्रथम छः को छोड़कर शेष निवन्धनादि अठारह अनुयोग द्वारों का कथन है। यह तो ठीक है कि सन्तकम्म में शेष अठारह अनुयोगद्वारों का कथन है किन्तु वह महाधवल या महावन्ध का मूल नहीं है । अस्तु, उक्त कथन से इन्द्रनन्दि के इस कथन की पुष्टि होती है कि वीरसेन स्वामी ने व्याख्या प्रज्ञप्ति को प्राप्त करके शेष अठारह अनुयोगों को लिखकर सत्कर्म नाम के छठे खण्ड को प्रथम पाँच खण्डों में मिलाकर उसपर धवला टीका रची। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में भी उक्त अठारह अनुयोगद्वार संग्रहीत थे और वप्पदेव ने छः खण्डों में से महावन्ध को पृथक करके उसके स्थान में व्याख्याप्रज्ञप्ति को सम्मिलित किया और उन्हीं का अनुकरण वीरसेन स्वामी ने किया । धवला टीका में अन्यत्र भी कई स्थलों पर 'सन्तकम्मपाहुड' के मतों का निर्देश मिलता है और उससे ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागम से यह भिन्न है । यथा १. षट्खण्डागम पु० ११, पृष्ठ २१ में, जो वेदनाखण्ड से सम्बद्ध है ज्ञानावरण की उत्कृष्ट वेदना उस महामत्स्य के बतलाई है जो मारणान्तिक समुद्धात करके अनन्तर समय में सातवीं पृथिवी में उत्पन्न होगा। इस पर धवला में शङ्का की गई है कि उसे सातवीं पृथिवी के नीचे निगोद जीवों में उत्पन्न क्यों नहीं कराया। इसके समाधान में कहा है कि संतकम्मपाहुड में निगोद जीवों में उत्पन्न कराया है। किन्तु वह योग्य नहीं है । इस कथन से स्पष्ट है कि संतकम्मपाहुड षट्खण्डागम से भिन्न है क्योंकि उसके वेदनाखण्ड से संतकम्मपाहुड का उपदेश भिन्न है और धवलाकार यहाँ उसको ठीक नहीं मानते किन्तु वेदनाखण्ड के कथन को ठीक मानते हैं। २. षड्खण्डागम पु० १५, पृ० ४३ में उपक्रम अनुयोगद्वार का कथन करते हुए कहा है कि चारों उपक्रमों का कथन जैसा संतकम्मपयडिपाहुड में किया है, वैसा करना । इस पर शङ्का की गई कि जैसा महाबन्ध में कथन है वैसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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