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मूलाचार में प्रतिपादित मुनि-आहार-चर्या
115 इस तरह उद्गम दोष के सोलह, उत्पादन दोष के सोलह, अशनादिक दश दोष तथा संयोजनादि चार दोष कुल मिलकर आहार-संबंधी छियालीस दोष हैं । चौदह मलदोष :
नख, रोम, जन्तु, अस्थि, गेहूँ, जवादि का कण या छिलका, कुण्ड अर्थात् शाल्यादि का भीतरी भाग, पूय, चर्म, रक्त, मांस, अंकुर योग्य बीज, फल, कंद तथा मूल ये चौदह मलदोष हैं। जिनको आहार में आया हुआ जानकर उसी समय आहार त्याग करना अभीष्ट रहता है।
श्रमणधर्म की क्लिष्टता को तलवार की धार पर चलने के सदृश बताया है। उन्हें पग-पग पर बहुत सतर्कता की आवश्यकता होती है। इन सब दोषों से बचकर ही मुनि को पाहार करना चाहिए। यदि आहार के पूर्व या मध्य इन दोषों की आशंका दिखलाई दे या इन दोषों का प्रसंग आये तो मुनि को चाहिए कि अन्तराय समझकर सद्यः आहार का त्याग कर दे। इस तरह मुनि आहारचर्यानुसार भोजन कर पुनः दोषों के नाशार्थ प्रतिक्रमण करते हैं तथा एक वार आहार लेने के बाद पुन: उसी दिन आहार नहीं लेते। इसीलिए मुनि का जीवन महाव्रती जीवन कहलाता है। क्योंकि मूलगुणों का पालन करने वाला मुनि ही अपने अशेष कर्मों का क्षय करके अनन्त आत्म-सुख प्राप्त करता है।
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