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________________ 110 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN NO. 2 कर्म की ओर है उसका द्रव्यग्रहण भी बंधक ही है । यदि मुनि शुद्ध वस्तु में भी अशुद्ध भाव करता है तो भी उस विषय में उसे प्रायश्चित्त करना पड़ता है। क्योंकि यदि शुद्ध आहार ग्रहण के भाव से कदाचित् अशुद्ध आहार भी ग्रहण कर लेता है तो वह भी शुद्ध आहार ग्रहण के सदश है। अत: जिन कर्मों के करने से जीवहिंसा होती है, ऐसे अधःकर्मयुक्त किसी भी पदार्थ की वे न मन-वचन-काय से अनुमोदना ही करते हैं और न ऐसे आहार व वसति आदि को ग्रहण ही करते हैं।' मुनि जानते हैं कि जब सिंह, व्याघ्रादि भी एक, दो या तीन मृगों को खाने से "नोच" कहे जाते हैं, तब अधःकर्म से युक्त आहार में जो मुनि जीवराशि खा जाते हैं वे मुनि भी "नीच" क्यों नहीं कहे जायेंगे ?२ और फिर यह जीव सदा से ही अर्थ, जीवन, जिह्वास्वाद और कामसुख, इनके कारण अनन्तवार स्वयं मरता है और दूसरों को भी मारता है। इन सब में जिह्वास्वाद और काम सुख तो इस अनादि संसार में ही अनन्त दुःखों को प्राप्त करानेवाले हैं। अतः विचारपूर्वक आचरण करनेवाले साधुओं को आरोग्य और आत्मस्वरूप में सुस्थित रहने के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छः बातों का पर्यालोचनपूर्वक सर्वाशन, विद्धाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहार में प्रवत्ति करनी चाहिए, क्योंकि प्रासुक अन्न और उपधि इन दोनों को जो गृहस्थ आत्मशुद्धिपूर्वक मुनियों को देता है, तथा जो मुनि ग्रहण करता है, उन दोनों को महाफल प्राप्त होता है। सामान्य रूप से भोजन शुद्धि के प्रमुख चार अंग हैं :--१. मनशुद्धि, २. वचनशुद्धि, ३. कायशुद्धि और आहारशुद्धि। इन चार शुद्धियों में आहारशुद्धि के भी चार अंग हैं:-१. द्रव्यशुद्धि, २.क्षेत्र शुद्धि, ३. कालशुद्धि, ४. भावशुद्धि । इनमें से भावशुद्धि मनशुद्धि में गर्भित हो जाती है। अतः भोजनशुद्धि प्रकरण में छह शुद्धियों पर विशेष ध्यान रखना आवश्यक है :-१. मनशुद्धि, २. वचनशुद्धि, ३. कायशुद्धि, ४. द्रव्यशुद्धि, ५. क्षेत्रशुद्धि और ६. कालशुद्धि । इन्हीं शद्धियों को प्रगट करने के लिए ही मुनि को पड़गाहते समय श्रावक मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि, आहार-जलशुद्धि कहते हुए मुनि से भोजनशाला में प्रवेश के लिए प्रार्थना करते हैं। मूलाचार में इसीलिए तो कहा है :"भिक्षा, वाक्य, हृदयादि शुद्धि पूर्वक जो साधु सदा आचरण करता है, उसे जिनेन्द्रदेव के शासन में "सुस्थित" अर्थात् सद्गुणों से युक्त मुनि कहा जाता है। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १. पृष्ठ ४८. २. मूलाचार १०.२९. ३. वही, १०.९६. ४. अनगारधर्मामृत, ५.६५. ५. मूलाचार, १०.४५. ६. जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग १, पृष्ठ २९. ७. मूलाचार १०, ११३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522602
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Chaudhary
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1974
Total Pages342
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size7 MB
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