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मूलाचार में प्रतिपादित मुनि-पाहार-चर्या
109 खिन्न न होकर दोनों ही अवस्थाओं में समभाव (समता) धारण करते हैं।' पद्मपुराण में भी कहा है कि "मुनि परगह में प्राप्त भिक्षा को निर्दोषता सहित मौनपूर्वक खड़े होकर ग्रहण करते हैं । आहार-ग्रहण की मात्रा:
आहार उदरस्थ होकर पाचन-क्रिया द्वारा शरीर में प्राण धारणादि शक्ति पैदा करता है। यदि आहार की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है तो वही अन्न शरीर में विकार पैदा करता है। अतः मनुष्य को इतना भोजन लेना चाहिए जिससे उसकी पाचन-क्रिया पर अधिक बोझ न पड़े। सामान्यत: स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार पेट के चार भाग माने हैं और स्वस्थ रहने के लिए यह भी बताया है कि पेट के चार भागों में से दो भागों को अन्न से, तीसरे को जल से पूरित करना चाहिए तथा चतुर्थ भाग को वायुसंचरण के लिए खाली छोड़ देना चाहिये । और यही बात आ० वट्टकेर ने मूलाचार में मुनियों के लिए कही है। वैसे भी प्रायः पुरुष के पेट भरने का आहार प्रमाण बत्तीस ग्रास तथा स्त्रियों के आहार का प्रमाण अट्ठाईस ग्रास हैं। अतः गृद्धतापूर्वक मात्रा से अधिक तथा गृहस्थ पर भार डालकर, पौष्टिक भोजनादि ग्रहण करने का निषेध है। क्योंकि कहा है-"मुनिजन ठण्डा-गरम, रूखा-सूखा, नमक सहित या रहित, स्निग्धता रहित भोजन को अनास्वादपूर्वक ग्रहण करते हैं। प्रतिदिन परिमित और प्रशस्त आहार लेना श्रेष्ठ है, किन्तु अनेक बार आहार लेना या अनेक प्रकार के उपवास करना ठोक नहीं। अतः साधु को भूलकर के भी मात्रा से अधिक एवं गरिष्ठ भोजन नहीं लेना चाहिए । मुनि के लिए ग्रहणीय विशुद्ध आहार :
दूसरों की दृष्टि साधु के साधुपने को आहार-क्रिया के समय परखती रहती है। क्योंकि व्रत, शील, गुणों की प्रतिष्ठा ये सब कुछ भिक्षाचर्या पर हो निर्भर है। अतः भिक्षाचर्या का शोधन करके साधु सदा विहार करे। जो मुनि खड़े होकर, मौनपूर्वक, वीरासन से तप, ध्यानादि करता है, किन्तु यदि वह अधःकर्ग युक्त आहार ले लेता है तो उसके सभी योग, वन, शून्यचर, पर्वत की गुहा अथव। वृक्षमूल में निवास करना ये सब निरर्थक रहते हैं तथा जिनकी प्रवृत्ति अधः
१. वही, ९. ५१, ५२, ५०. २. पद्मपुराण, ४.९७. ३. मूलाचार ६.७२. ४. भगवती आरा० २११.
मूलाचार ९.४८. ६. वही, १०.४७. ७. वही १०.११२. ८. वही १०.३१.३२.
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