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________________ DHARMA AUR TATTVA 279 सांख्य-योग, पूर्वमीमांसक एवं जैन जैसी परम्पराओं ने तो विज्ञानवादी को ललकारा; इतना ही नहीं, बौद्ध परम्परा की स्थविरवादी, सर्वास्तिवादी और सौत्रांत्रिक जैसी बाह्यार्थ का अपने ढंग से भी वास्तविक अस्तित्व माननेवाली शाखामों ने भी विज्ञानवाद के मन्तव्य का प्रतिवाद किया। अब विज्ञानवाद के लिए नया रास्ता निकाले बिना कोई चारा नहीं था। इसलिए ध्यानावस्थ निर्विकल्प ज्ञान की उसके यहां जो प्रामाण्य-प्रतिष्ठा थी उसके आधार पर उसने लौकिक भूमिका के ज्ञानक्रम में प्रामाण्य का विचार व्यवस्थित किया। उसने अपनी मूल मान्यता को सुरक्षित रखकर कहा कि ज्ञान तो निर्विकल्प ही प्रमाण है; लौकिक भूमिकायें जो इन्द्रियार्थसन्निकर्षजन्य सर्वप्रथम ज्ञान होता है वह भी कल्पनापोढ होने से निर्विकल्प है और इसलिए वह भी प्रमाण है। परन्तु उसके पश्चात् होनेवाले सविकल्पक प्रत्यक्ष, अनुमान या प्रागम ज्ञान सविकल्पक होने से साक्षात् प्रामाण्यवाले नहीं हैं । उनमें जहाँ कहीं प्रामाय माना जाता है और लोकव्यवहार चलता है यहां उनका प्रामाण्य परम्परागत अथवा कहो कि निर्विकल्पक ज्ञान के आधार पर ही मानना चाहिये। विज्ञानवाद ने यह उत्तर तो दिया, परन्तु उसके समक्ष प्रश्न तो यह था कि बाह्यार्थ के वास्तविक अस्तित्व के बिना इन्द्रियों का सन्निकर्ष किसके साथ होगा ? इस पर उसने सौत्रान्तिक दृष्टि का अवलम्बन लिया। उस दृष्टि के अनुसार माने जाने वाले क्षणिक एवं निरंश बाह्य पदार्थ का अस्तित्व मानकर और उसके साथ इन्द्रियार्थसन्निकर्षको घटाकर उसने निर्विकल्पक ज्ञान की प्रामाण्य-प्रतिष्ठा लौकिक ज्ञान में भी की, परन्तु उसने सविकल्पक ज्ञानों का निर्विकल्पक जैसा साक्षात् प्रामाण्य तो माना ही नहीं। इस प्रकार विज्ञानवाद ने अपने सबन्धु बौद्धों को तो एक प्रकार से सन्तुष्ट किया और मात्र निर्विकल्प को ही मुख्य प्रमाण मानने की अपनी स्थिति भी सरक्षित रखी। परन्तु इतने से इतर दार्शनिकवादियों को सन्तोष नहीं हो सकता था. क्योंकि बाह्यार्थवादी सभी दर्शन सविकल्पक प्रत्यक्ष, अनुमान एवं आगम जैसे सविकल्पक ज्ञानों का मुख्य प्रामाण्य मानते थे। यह मतभेद और इसमें से फलित होनेवाली विवादप्रधान-चर्चा भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के द्वारा भिन्न-भिन्न दृष्टि बिन्दु से प्रवृत्त हुई है। सर्वप्रथम हम न्याय-वैशेषिक परम्परा का दृष्टिबिन्दु लेकर विचार करें। उसने कहा कि जिसका हम स्वरूपालोचनमात्र अथवा अव्यपदेश के नाम से व्यवहार करते हैं वह ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्ष से सर्वप्रथम अवश्य उत्पन्न होता है और उसमें विशेषण-विशेष्य भाव का अवगाहन न होने से उसे निर्विकल्प कहने में भी हमें कोई खास हर्ज नहीं है, परन्तु यह प्राथमिक निर्विकल्प ज्ञान ही विषय स्वरूप की दृष्टि से प्रमाण है और उसके पश्चात् होनेवाला विशिष्ट ज्ञान अथवा सविकल्पक ज्ञान मुख्य प्रमाण नहीं है-ऐसा विज्ञानवादी का मन्तव्य यथार्थ नहीं है। इसी प्रकार अनुमान और पागम ज्ञानों का मुख्य प्रामाण्य भी हम प्रत्यक्ष के जितना ही मानते हैं। इस दृष्टिबिन्दुको न्याय-वैशेषिक परम्परा अन्त तक मानती रही है। उसने विज्ञानवाद के मन्तव्य को अनेक युक्ति-प्रयुक्तियों से बांधित सिद्ध किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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