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________________ DHARMANĪTI AUR RAJANITI 249 सर्वे (यागा राजमेंषु दृष्टाः सर्वा दीक्षा राजधर्मेषु चोक्ताः। सर्वा विद्या राजधर्मेषु युक्ताः सर्वे लोका राजधर्म प्रविष्टा : ( शांतिपर्व, ६३. २६-९ ) अर्थात्, यदि दण्डनीति नष्ट हो जाय तो तीनों वेद रसातल में चले जायें और समाज में प्रचलित सारे धर्मो का नाश हो जाय, पुरातन राजधर्म, जिसे क्षात्रधर्म भी कहते हैं, यदि लुप्त हो जाय तो आश्रमों के सम्पूर्ण धर्मों का ही लोप हो जायगा। राजा के धर्मों में सारे त्यागों का दर्शन होता है, राजधर्मों में सारी दीक्षाओं का प्रतिपादन हो जाता है, राजधर्म में सम्पूर्ण विद्याओं का संयोग सुलभ है, तथा राजधर्म में सम्पूर्ण लोकों का समावेश हो जाता है। ___ भारतीय प्राचीन शास्त्रकारों का धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के पारस्परिक सम्बन्ध निर्धारण करने वाला यह दृष्टिकोण परवर्ती काल में बदल गया, जब मिताक्षराकार विज्ञानेश्वर महारक जैसे विद्वान् राजधर्म को अर्थशास्त्र को कोटि में रखकर धर्मशास्त्र के साथ अर्थशास्त्र का विरोध होने पर अर्थशास्त्र को दुर्बल और हीन मानने लगे। याज्ञवल्क्य स्मृति के व्यवहार-अध्याय को--अर्थशास्त्रात्तु बलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थिति : ---इस उक्ति के आधार पर यह मत पनपा। इस मत की असंगति पर "प्राचीन भारत की दण्डनीति" में सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जिसे ध्यानपूर्वक अवश्य देखना चाहिये। जैन, बौद्ध, जैसे श्रमण धर्मो की मौलिक वैराग्य प्रधान भावनाओं का इस मत के उद्भव में प्रभाव रही है। यद्यपि सोमदेव सूरि जैसे जैन चिन्तक अपने नीतिवाक्यामृत में स्पष्ट कहते हैं-अथ धर्मार्थफलाय राज्याय नमः--पर यह उक्ति प्राचीन वैदिक परम्परा की प्रतिध्वनि मात्र प्रतीत होती है । बौद्ध परम्परा की स्थिति भी इस विषय में जन परम्परा जैसी ही है। इस प्रश्न पर महाभारत की व्याख्या अत्यन्त स्पष्ट एवं विवेकपूर्ण है। ऐसी व्याख्या अत्यन्त दुर्लभ है। धर्मशास्त्र में वर्णित मोक्ष और अर्थशास्त्र में वर्णित दण्ड के अंगीभूत विषयों के प्रसंग में महाभारत कहता है--- मोक्षस्यास्ति त्रिवर्गोऽन्यः प्रोक्तः सत्त्वं रजस्तमः । स्थानं वृद्धिः क्षयश्चैव त्रिवर्गश्चैव दण्डजः ॥ __( शांति, ५९.३१) अर्थात् मोक्ष का त्रिवर्ग दूसरा बताया गया है जिसमें सत्त्व, रजस् और तमस् की गणना है । दण्डजनित त्रिवर्ग उससे भिन्न है । स्थान, वृद्धि, और क्षय-ये ही उसके भेद हैं (अर्थात् दण्ड से धनियों की स्थिति, धर्मात्माओं की वृद्धि और दुष्टों का विनाश होता है। ४. धर्मनीति और राजनीति के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में प्राचीन भारत के दृष्टिकोण को हमने देखा, इन दोनों नीतियों को स्वतंत्र मानकर विषय और फल की अपेक्षा से उनमें अविरोध की स्थापना करना हमारे प्राचीन चिन्तकों को इष्ट था। मध्ययुग में मिताक्षराकार जैसे विद्वानों ने इसके विपरीत धर्मनीति को ही प्राधान्य देकर राजनीति को हीन बताया। राजनीति में भाग लेने के कारण जैनों ने आचार्य हेमचन्द्र जैसे महापुरुष की भर्त्सना की, आधुनिक युग में महात्मा गांधी ने इन नीतियों में घनिष्ट सम्बन्ध स्थापन की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
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