SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ DHARMA KE MULA: ANUBHUTI EVAM TARKA 221 गायत्री श्रुतशालिनां प्रकृतिरित्युक्तासि सांख्यायने मातर्भारति कि प्रभूतभणिताप्तं समस्तं त्वया ॥ हे मातः भारति, तुम ही बौद्ध आगमों में तारा हो, शैव आगमों में गोरी हो, कौलिक धर्म में वना हो, जैन शासन में पद्मावती के नाम से विख्यात हो, वेदानुरागियों की गायत्री हो, सांख्य दर्शन में तुम्हें प्रकृति कहा जाता है, अधिक कहने का क्या प्रयोजन, समस्त ( चराचर जगत् ) तुम्हारे द्वारा व्याप्त है। इसी प्रकार मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण तत्त्व के बारे में भी भारतीय चिन्तकों में एकवाक्यता देखी जाती है। किसी साधक की साधनालब्ध अनुभूति का अपलाप करना महान् अपराध है । जैन आचार्य हरिभद्र अपने योगदृप्टिसमुच्चय ( १३९ )में कहते हैं न युज्यते प्रतिक्षेप: सामान्यस्यापि तत्सताम् । आर्यापवादस्तु पुनजिह्वाच्छेदाधिको मतः ।। हमारे जैसों ( चर्मचावालों ) के लिए समान्य जन का भी तिरस्कार करना उचित नहीं है तो फिर आयंजनों का अपवाद फैलाना जिहबाच्छेद से भी अधिक (दण्डयोग्य अपराध ) क्यों नहीं माना जायगा ? यदि निर्वाण एक साधनालब्ध अनुभूति है एवं वह वस्तुभूत है तो वैसी सभी अनुभूतियो अवश्य एक रूप होंगी। हरिभद्र इस प्रश्न पर विचार करते हुए अपने (योगदृष्टिसमुच्चय, १२७-२८ ) में कहते हैं संसारातीततत्त्वं तु परं निर्वाणसंज्ञितम् । तद्वयकमेव नियमाच्छन्दभेदेऽपि तत्त्वतः ।। सदाशिवः पर ब्रह्म सिद्धात्मा तथतेति च । शब्देस्तदुच्यतेऽन्वथैरेकमेवैवमादिभिः ।। संसार से परे जो परम तत्त्व है उसे ही निर्वाण की संज्ञा दी जाती है । वह नियमतः एवं तात्विक रूप से एक ही है यद्यपि मिन्न-भिन्न साधक उसका वर्णन भिन्न-भिन्न शब्दों में करते हैं। वह एक ही तत्त्व सदाशिव, पर-ब्रह्म, सिद्ध प्रारमा तथा तथता आदि शब्दों से वर्णित होता है, जो उसके स्वरूप के परिचायक होने के कारण अन्वर्थ हैं। __इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय साधक एवं चिन्तक विभिन्न उपास्य देवों एवं साधनालब्ध अनुभूतियों में एकरूपता देखते हैं। इस बात की पुष्टि के लिए और भी उद्धरण दिये जा सकते हैं, पर प्रस्तुत प्रसंग में उनकी आवश्यकता नहीं है। भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय के तार्किक युक्तिओं द्वारा अपनी अपनी परम्परामों की पुष्टि करते रहे पर साथ साथ ऐसे भी चिन्तक हुए जिन्होंने उन विभिन्न परम्पराओं में भी सामंजस्य करने का प्रयत्न किया । वैसे प्रयत्नों के फलस्वरूप जैन दार्शनिकों का नयवाद परिपुष्ट हुआ, जो भारतीय चिन्तन धारा को उनकी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण देन है। कोई भी वाद मिथ्या नहीं है, यदि वह अपने प्रतिद्वन्द्वी दूसरे वादों का निराकरण नहीं करके अपनी ही सिद्धि में संलग्न रहता है। सत्यान्वेषण ही तर्कशास्त्र का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिए--यही नयवाद का निष्कर्ष है । हमने प्रस्तुत विषय के कुछ ही मुद्दों पर अपने विचार आपके सामने रक्खे । गोष्ठी में भाग लेने वाले विद्वान विषय के विभिन्न पहलुओं पर अपने-अपने विचार आपके समक्ष रखेंगे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522601
Book TitleVaishali Institute Research Bulletin 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmal Tatia
PublisherResearch Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
Publication Year1971
Total Pages414
LanguageEnglish, Hindi
ClassificationMagazine, India_Vaishali Institute Research Bulletin, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy