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જૈનધર્મ વિકાસ.
जो आज्ञा नामका - जो बिंदु है उस ब्रह्मका || जो लक्ष्य है योगीन्द्रका जो स्थान है शुभ नादका । हं क्षं महाशुभ मंत्र से मंत्रित मनोहर पद्म हैं । विजयनीतीशका सुखशांति पूरण सब है ॥८॥ कर्पूर कैसे वर्णवाला सच्चिदानंदरूप जो ॥ ara नामक चक्र है शिर मध्य में सुखकर अती । गुरुराज की वह मूर्ति है उसमें रहे निशिदिन मती ॥९॥ कर भद्र भद्रानंदका षट्चक्र वासी सद्गुरो । तुमही मेरे परमेष्ट हो तुमही तो इश्वर हो गुरो || इस निर्झरामय दुःखको अब तो हटाकर नाथ हे । सद्योगवृत्ती लीनकर तारो मुझे यतिनाथ हे ॥१०॥
॥ श्री भावकुलकम् ॥
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॥४१॥
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॥ कर्ता - आचार्यश्री विजयपद्मसूरिः ॥ ( तां ५४ १२३ थी अनुसंधान. ) सन्भावया किरिया - थावा विफलप्पयाण सामत्था । नासेइ कम्मपंकं - रवितिमिरनिंदंसणा णेयं दाणाइयाइ अंगो - बंगाई सिकुभावभूवस्स । देहो जीवेण जहा - सब्भावेणं तहा धम्मो धम्मस्स हिअयमित्तो - सब्भावो कम्मट्ठदहणग्गी । सकअण्णेसु घयं - मुत्तिरमादारवालो से दाणं धणेण सीलं - सत्तेण तवो तविज्जए कट्ठा। न धणं सत्तं कट्ठे-भावे सम्भावणा सुलहा दीहेणं कालेणं - भाववियलदाण सीलतव करणा । अं पुण्णं काले-अध्पेणं तं पसिज्झेजा भावे पसण्णचंदोदितो सुद्धभावणाजुत्तो । पत्तो केवलनाणं- बंधो मोक्खो सभावेहिं असुहेणं तंदुलिओ-मच्छो भावेण होज नेरहओ | सुभाषेहिं जाओ सध्वष्णू समणबाहुबली ॥४६॥
॥४३॥
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