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________________ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા. शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा. लेखकः-पन्यास श्रीप्रमोदविजयजी गणिवर्य. (पन्नालालजी) (dis y४ ७४ थी अनुसंधान.) पुरातत्वज्ञ श्रीमान् काशीप्रसाद जायसवाल ने पटना की वस्ती अगम कुंआ से मिली हुई दो मूर्तियों के शिलालेखों से स्पष्ट निर्णय पूर्वक यह घोषणा की है कि ये जैन मूर्तियां महाराजा कोणिक (अजातशत्रु) के समय की ही हैं। आपने अपने ये बिचार भारती इतिहास की रूपरेखा पृष्ठ ५०२ पर स्पष्ट प्रकट किये हैं। पुरातत्वज्ञ श्रीमान् हीरानन्दशास्त्री ने "सरस्वती" नामक मासिक पत्रिका के वर्ष पंद्रह अंक दूसरे में एक विस्तृत लेख प्रकाशित कराया है उसमें आप लिखते हैं कि मथुरा से चौदह माइल के फासले पर "परखम" नामक ग्राम में एक प्रतिमा उपलब्ध हुई है जिस पर बाह्मी लिपि का लेख है उससे सिद्ध होता है कि यह मूर्ति ईस्वी सन् के २५० वर्ष पूर्व की है। साथ ही जैनधर्म के गौरव का सूचक एक स्तूप का भी पता मिला है जो कि पिप्रावह के स्त्प से कम पुराना प्रतीत नहीं होता है यह स्तूप गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद कुछ ही समय में बना है अर्थात् ईस्वी सन् के ४५० वर्ष पूर्व का है। इससे जैन धर्म और मूर्तिपूजा की प्राचीनता भी स्पष्ट ज्ञात हो जाती है। श्रीमान् त्रिभुवनदास लहेरचन्द ने अपने भारत वर्ष के प्राचीन इतिहास पृष्ठ १६ पर लिखते हुए बतलाया है कि अंग्रेजों को खुदाई का काम करते हुए जो महावीर की मूर्ति प्राप्त हुई है बह २२०० वर्ष प्राचीन है और उस समय भी जैन धर्म में मूर्तिपूजा आमतौर से प्रचलित थी इसकी साक्षी यह प्राचीन जैन तीर्थकर मूर्ति ही दे रही है। जैन पत्र ता. ८-१२-३५ में एक पुरातत्वज्ञ ने मूर्तिपूजा की प्राचीनता बतलाते हुए एक मूर्ति के आधार पर यह सिद्ध किया है कि यह मूर्ति भगवान् महावीर के समसामायिक ही है और उस समय भी मूर्तिपूजा का प्रचार खूब जोर पर था। यदि भगवान् महावीर के समय मूर्तिपूजा प्रचलित न होती तो कदापि उस समय के शिलालेख एवं मूर्तियां वर्तमान में उपलब्ध नहीं हो सकती थीं। इन मूर्तियों और शिलालेखां के आधार पर ही सर्व अन्वेषकों ने अपनी एक सम्मति यह दी है कि मूर्तिपूजा जैन धर्म में बहुत ही प्राचीन है। इतना ही नहीं किंतु मूर्तिपूजा जैन धर्म का एक खास अंग है। यदि यह अंग निकाल दिया जाय तो जैन धर्म का असली स्वरूप ही बदल जायगा। विशाला नगरी के समीपवर्ती प्रदेश में अन्वेषण प्रयत्न से जो मंदिर, मूर्तियां, पादुकाएं और स्तूपादि जैन स्मारक ध्वंसापशेष निकले हैं उन पर यूरोपियन विद्वानों ने निष्पक्षपात दृष्टि से विचार कर स्पष्ट अपना अभिप्राय
SR No.522529
Book TitleJain Dharm Vikas Book 03 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1943
Total Pages28
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size7 MB
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