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આદિનાથ ચરિત્ર.
सुयसा हे एक राज कुमारा, वज्रनाभ कर है अति प्यारा॥ पूर्व जन्म कर प्रीती भारी, सो कैसे अब जात बिदारी ॥ बड़ते दिन प्रति छहोकुमारा, अव कुदावत लगे पियारा । करत विलास अति ही सुख पाई, अल्पकाल सब विद्या पाई ॥ भूधर धर तोलत निज हाथा, अतुलित बल सब कुंवर सुहाता । ते हि अवसर लोकांतिक देवा, आये नृपहिं विज्ञाप्ती केवा ।। कहा धर्म कर सहज सुबाहो, तीर्थ वृतनिज चितमें लाओ। राजा वज्रसेन मन भावा, राज तिलकर साज सजावा । वज्र नाम कर सोपहिं राजू, किया महोत्सव अति सुख साजू ॥ उत्सव अति कीना सुर राया, बज्रसेन बाग अपनाया।
खयंबुद्ध भगवानने, दिक्षाली तेहि बाग ।
ज्ञान हुआ उत्पन्न तर्भा, वज्रसेन अहभाग ॥ दिक्षाले पुनि करत विहारा, ज्ञान देय तारे संसारा ॥ इधर कुंवर वज्रनाम हे राजा, सबहिं मित्र कर देस विभाजा। लोकपाल संग जिमि सुर राया, तिमिहीं नृप वज्रनाभ सुहाया। सारथी हे जिन सुयस कुमारा, महारथी वज्रनाभ दिलारा ।
तेहि अवसर आयुध भवन, आया तेज महान । तिनमें चकृ सुहावना, देख लजाया भान ॥ वज्रनाभ कर पुन्य प्रभावा, निधियां ताहि भवन चील आवा॥ चकृवती माने वज्रनाभा, दिन प्रति दिन नृप बड़ती आमा । धन अरु धर्म बड़त दिन राती, करत धर्म नृप पावत शांती ॥ तेहि अवसर वज्रसेन मुनिशा, आये वज्रनाभ कर देशा । घेत्य तरुतल बेठ कृपालु, सद उपदेश दिया श्रद्धालु ॥ पज्रनाम नृप सुध यह पाइ, आया तुरत मुनि चरणन पाही। प्रदक्षिणा दे वंदन कीनी, जिन वाणी सुनली रस भीनी ॥ भव्य जिवन के मन कर सीपा, बाणी स्वाति बूंद सम छींटा ।
उपजत मोती ज्ञानके, महिमा कही न जाय । तिमि मन नृप वज्रनाभके, ज्ञानरत्न उपजाय ॥ मनहीं मन नृप करत विचारा, यह है अति दुस्तर संसारा ॥