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જનધર્મ વિકાસ.
राय वहादुर पं० गौरीशंकरजी ओझा ने राजपुताने के इतिहास भाग १ पृष्ठ ९४ पर लिखते हैं कि- "तो भी इतना माना जा सकता है कि इन देशों पर सम्पति का राज्य रहा हो और कितनेक जैन मंदिर उसने अपने समय में बनवाये हों" मारवाड, मेवाड आदि स्थानों में सम्प्रति राजा के काल के मंदिर भी विद्यमान हैं। जिनकी प्राचीन कला चातुर्य को देख कर सब चकित एवं भकित पूर्ण हो जाते हैं और प्राचीनता में किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं रहता है।
कौटिल्य अर्थशास्त्र का ३-१८ का कानून यह बतला रहा है कि सम्राट चंद्रगुप्त के शासन में देव मंदिरों के विरुद्ध जो कोई अप शब्दबोले वह महान् दण्ड के योग्य समझा जाता था इसकी पुष्टि इस प्रमाणरूप पंक्तिसे ही हो जाती है कि:- "आक्रोशाद्देव चैत्याना युत्तम दण्ड मर्हति"
वास्तव में मौर्य काल के समय मंदिरों और मूर्तियों का कितना उच्च · मान था यह बात इस कानून से स्वतः प्रमाणित हो जाती है। साथहीराजाओं की धर्म प्रियता और धार्मिकता का भी परिचय मिलता है इस से यह भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि मौर्य काल के पूर्व भी मंदिरों का बहुत प्रचार था जिसकी पराकाष्ठा का रूप हमें मौर्य काल के ईतिहास में मिलता है।
वडलीग्राम जो कि अजमेर मेरवाड़ा में है वहां के शिलालेख की शोध से रा. ब. पं. गौरीशंकरजी ओझा ने यह स्पष्ट जग जाहिर घोषणा कर दी है कि-"वीराय भगवते चतुरासीति वासे माझिमिके" यह शिलालेख वीर निर्वाणके ८४ वर्ष के समय अर्थात् वीर संवत् ८४ में लिखा गया है जो मूर्तिपूजा और जैनधर्म की प्राचीनता पर सुन्दर प्रकाश डालता है इस शिलालेख में बतलाई हुई माझिमिका वही प्राचीन माध्यमिका नगरी है जिसका उल्लेख भाष्यकार पतंजलिने अपने महा भाष्य में किया है। यह शिलालेख अजमेर के म्यूजियम (अजायब घर) में अभी भी सुरक्षित रूप में है श्रीमान् काशीप्रसाद जायसवाल और महा महोपाध्याय डो. सतीशचन्द्र विद्याभूषण जैसे खोजकों ने भी इस संबंध में अपनी२ सम्मति प्रकट करते हुए लिखा है कि वास्तव में यह लेख वीर निर्वाण के ८४ वर्ष के बाद में ही लिखा गया है
और जैन धर्म की महत्ता पर और कल्पना में परिवर्तन कर दिया है। इतना ही नहीं स्वयं संतबालजी और पं. बेचरदासजी की कल्पना में भी बहुत कुछ परिवर्तन हुआ है।
पुरातत्व के अनन्य अभ्यासी श्रीमान् डाक्टर प्राणनाथ का मत है किई. सम् के पूर्व पांचवीं छठी शताब्दी में भी जैनियों के अंदर मूर्ति का मानना ऐतिहासिक प्रमाणों से सिद्ध है।
(अपूर्ण.)