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________________ મહાજને ચેન ગતઃ સ પત્થા ૧૨૯ यदि चला जाय तो उन्हे दीक्षा लेनी पड़े । इस प्रकार वे अपने अखण्ड परिश्रम से विद्याध्ययन करने लगे। पढने के समय के अतिरिक्त समय में बड़े साधुओं की सेवा करना तो इनका मुख्य कर्तव्य था। इनसे सभी सन्त प्रसन्न रहेते थे तथा सभी इनको प्यार करते थे। विक्रम संवत् १९५२ में विद्याध्ययन करते हुए भी मुनिश्री "गुमानविजयजी महाराज" (जिनका शरीर रुग्ण था) की सेवा करने के लिए "अहमदाबाद" में ही चातुर्मास्य व्यतीत किये। तीव्र बुद्धि होनेके कारण, अपनी नम्रतासे, तथा महात्माओं के शुभाशीर्वादसे यथा शीघ्र शास्त्रतत्व जानने में समर्थ हो गये । समाज मे अधिक नम्र, उदार बुद्धि, तथा विद्वान होने के कारण इन्हे आचार्य पदसे सुशोभित किया गया इनकी तपश्चर्या तो अवर्णनीय है । इनको देखकर कैसा भी क्रूर मनुष्य हो पर उसके हृदय में दयाका सञ्चार हुए बिना नही रहताथा । इनको देखते ही पारस्परिक द्वेष नष्ट हो जाते थे। दूसरे की निन्दा तो ये आजन्म कभी कीये ही नहीं। शिष्यवर्गों को अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय समझते थे। इनके जीवन का लक्ष्य निरन्तर धर्मविमुख जनता को धार्मिक बनाना तथा प्राचिन तीर्थों का उद्धार करना था । अनेकों धर्मविमुख प्राणियों कोधार्मिक बनाकर उनका जीवन सफल कर दिया, तथा अनेकों प्राचीन तीर्थों का उद्धार करके जैनधर्म का रक्षा किया। इनके चरित्र के विषय मे कई पुस्तकें लिखी गयीं हैं जिन के पढने से मालूम होगा कि ये कैसे सदाचारी, पञ्चमहावतधारी, प्राचीन तीर्थोद्वारक, प्रकाण्ड विद्वान थे। ऐसे महामुनि आचार्यश्री विजयनीति. सूरीश्वरजी महाराज के अचानक स्वर्गारोहण करने से साधु समाज में कितनी क्षति हुई है जो साधुओं को प्रत्यक्ष रूप में दीखता है। आशा है कि साधुसमाज उनके बाद की क्षति की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील बनेंगे। जिसे जैन समाज पूर्ववत् अपने धर्मपरायणता में तत्पर रहेगा। वि२४-व्य. રચયિતા સેવાભાવી યુવક (ne.) ભુંડા કાળ દયાહિણ. તુજ કૃતી, કેથી જિતાઈ નહી. આકાશે પૃથ્વી વિશે જળ મહી, છાયા છવાઈ રહી. આનંદી અતિ પ્રેમીલા યુગલને, જુદાં અરે તે કર્યા. સંતેશે વસતાં સદા સદનમાં, તેનાં સુખ તેં હર્યા. સુખીને દુખીયા કર્યા પલકમાં, તારી વૃદ્ધી ન થતી. મટા મારથી બાંધીયા જકડમાં, છત્યા ન તારી ગતી. સૂરીશ્વર નીતિવિજય હરણમાં, આવી દયા ન જરી. શ્રદ્ધાળુ સહુ ઝુરતા અરે ભુંડ, હૃદય વિયેગી કરી.
SR No.522516
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages104
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size14 MB
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