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________________ ૧૨૮ જેનધર્મ વિકાસ धातु भी स्वर्ण हो जाती है, उसी तरह संतो के संसर्ग से ही शठ मनुष्यों में भी उत्तम गुण आ जाते हैं । जैसे अञ्जलि में आए हुए फूल दाहिने तथा वायें दोनों हाथों को समान ही सुगन्धित करते हैं उसी तरह महात्मालोग “जो उन से द्वेष करते हैं या उनकी भक्ति करते हैं" उन सभी को समानरूप से ही अपने उपदेशों द्वारा उपकार किया करते हैं । ऐसे ही महात्माओं के दर्शन से पाप दूर होते हैं, अत्यन्त पुण्यका उदय होता है, हृदय का ताप दूर हो जाता है, जिनके शान्तिकारक उपदेशों से शोक नष्ट हो जाते हैं अत एव वे सभी संसार के प्रिय होते हैं । ऐसे महात्माओं के चरित वर्णन करने में बड़े बड़े विद्वान तथा कवियों की भी वाणी रुक जाती है । । यों तो ऐसे महात्मा संसार में इतने हो गये हैं जिन्होंने अपने आध्यात्मिक बलों से ससार को हिलादिया है। उन महात्माओं की गणना करना मनुष्य की बुद्धि के बाहर है । उन्ही महात्माओं में से एक अत्यन्त दयालु, समदर्शी, पञ्चमहाव्रतधारी महात्माका कुछ संक्षिप्त चरित्र लिखता हूं जिसे पढकर उनके मार्ग को अनुसरण करते हुए पाठक गण लाभ उठायेंगे। संसार के पुण्य संचय से सौराष्ट्रप्रदेश के अन्तर्गत वांकानेर नाम के गांव में एक बहुत उदार भाववाले तथा पवित्रात्मा श्रावक का आविर्भाव हुआ जिनका नाम “फुलचन्दभाई"था उन के स्त्री का नाम "चउथीबाई" था । इन्ही पवित्रात्माओं के पुण्य प्रताप से विक्रम संवत् १९३० में इस महात्मा का जन्म हुआ जिनका नाम भातापिताने "निहालचन्द" रक्खा । ये बाल्यावस्थासे ही पवित्रावरणवाले थे। इनके उत्तम गुणों से माता पिता इन से सदा प्रसन्न रहते थे, ग्रामवासी लडके तथा युवक इन के गुणों से मुग्ध होकर हमेशः इन की सेवा में रहा करते थे । लगभग १९ वर्ष की आयु तक अपने अनेक सदभावों से ग्रामवासियों की सेवा की । इस के बाद एक समय संसार से इन्हे इतनी विरक्ति हुई कि एकाएक दीक्षा लेने की उत्कण्ठा उपस्थित हो गई। वे तुरत्त गुरुजी के पास जाकर दीक्षा लेने के भाव प्रकट किये । पर गुरुजीने घर से आशा लाने के लिए वाध्यकिया लेकिन उत्कण्ठा के अधिक होने से घर न जाकर एक आम्र वृक्ष के नीचे आप से आप अपनी लोचकर कपडे पहन लिये । फीर विक्रम संवत् १९५० में मुनिश्री पन्यासजी प्रतापविजयजी महाराज के करकमल से वडी दीक्षा लेकर मुनिश्री नीतिविजय नामसे प्रसिद्ध होते हुए विक्रम सं. १९५१ में "अहमदावाद" लोहारकी पोलकी उपाश्रय में रह कर बहुत परिश्रम के साथ विद्याध्ययन करने लगे। पढने के समय का इनका नियम यह था कि पढने के स्थान पर कोई दर्शनार्थी भी न जाय, संयोगवश
SR No.522516
Book TitleJain Dharm Vikas Book 02 Ank 04 05 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1942
Total Pages104
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size14 MB
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