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હદગાર.
૧૧૯ जिन-बिम्ब की बारात है पर वह पुरोहित है कहाँ ? जिनकी कृपा से ही हुआ श्री-संघ एकत्रित यहाँ ॥१४॥ तीनों सुशिष्यों के सहित 'गम्भीर सरि' महन्त हैं। विद्वान 'पाठक' श्री 'दयाविजयादि' उनिस सन्त हैं। 'पंन्यास' श्री 'सम्पत्मनोहर' के 'चरण' श्रद्धेय हैं । अब साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका अनुमेय हैं ॥१५॥ हम पश्च भिक्षुक-वृन्द जो जन्मे हुए 'मेवार' में । तज 'ढूँढ़ियों' का वेश आये 'सूरि' के दरबार में ॥ दिल में उमझें थीं भरी, सम्यक्त्व के संचार में । हा ! हा !! खिवय्यां के बिना, नय्या पड़ी मँझधार में ॥१६॥ पर 'सरि' का वह आखिरी सन्देश हमको याद है। जो 'सादड़ी' में ही सुनाया, धैर्य का सम्वाद है ।। "मैं 'चल बसा तब भी तुम्हारे कार्य में आधार हूँ"। 'निश्चिन्त तुम रहना सदा हित के लिये तय्यार हूँ' ॥१७॥ इन 'सौम्य वचनों से, असीम 'प्रमोद' का 'दीपक जला। अब क्यों बनें न 'अशोक'? 'आरत'-ध्यान जब सारा टला ॥ आचार्य की 'भद्रङ्करी' आत्मा हमारे पास है । कल्याण की 'उम्मीद' ही क्या पूर्ण दृढ़ विश्वास है ॥१८॥ विश्वास-दाता 'सरि' युग-युग तक, सदा जीते रहें। हम आपके गुण-गान की, सच्ची सुधा पीते रहें ॥ करते रहें जिन-भक्ति का विस्तार सब संसार में। श्रावक-श्रमण सब शुद्ध हों आचार या व्यवहार में ॥१९॥ अब अन्त में यह प्रार्थना, सब सन्त-मण्डल से करूँ। आचार्य की दृढ़ भावना, अपने हृदय में भी धरूँ॥ मेवाड़ में विचरें, बढ़ायें 'श्राद्ध' जिन-गुरु-धर्म के। 'गुजरात का अब मोह छोड़ें', ये वचन हैं मर्म के ॥२०॥
दोहाजब तक हैं आकाश में, "सूर्यचन्द" दिन-रात । तब तक हो आचार्यकी कीर्ति सदा विख्यात ॥२१॥...