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જૈન સમાજકી સ્થિતિ ઓર કર્તવ્ય. जैन समाजकी स्थिति और कर्तव्य.... लेखक : आर्य जैन मुनि सुखलाल. (स्थानकवासी) (५० २ २४ १ पृष्ठ 34 थी मनुसंधान)
प्रथम-चिनगारी. विवाह का क्या उद्देश था ? वह किन नियमों और किस पद्धति द्वारा होता था, यह सब भुला दिया जाकर, वर्तमान में अधिकांश विवाह कार्य विधवाओं भयंकर संख्या बढ़ाने वाला हो रहा है व उससे अत्याचार और व्यभिचार की मात्रा समाज में बढ़ती हुई दिखाई देकर भ्रूणहत्याओं की अवाज भी सुनाई दी जा रही है इस तरह समाज पर दु:ख के बादल छाते जा रहे हैं।
समाज में कैसा मूर्खता पूर्ण विचार फैला हुआ दिखाई दे रहा है कि जिन मनुष्यों ने अपनी वृद्धावस्था में पदार्पण किया होने से वानप्रस्थाश्रम ग्रहण करना चाहिये वे अबोध छोटी छोटी बालिकाओं के साथ पाणिग्रहण करते हुए नजर आ रहे हैं। इस तरह ये ही वृद्ध ! समाज में विधवाओं की संख्या बढ़ा समाज को उपरोक्त कलंकों से कलंकित कर रहे हैं अगर समाज के हित की कामना किसी के दिल में हो तो ऐसे वृद्ध विवाहों को रोक देना चाहिये जिससे विधवाओं की संख्या न बढ़े और समाज भी कलंकित होने से बचे।
अगर दीर्घ दृष्टि से देखा जायतो ऐसे विवाहों के लिए अकेले वृद्ध ही दोषी नहीं हैं, परंतु वह समाज भी दोषी है जो ऐसे राक्षसीय विवाहों में सम्मिलित होकर मिष्टान्न पर हाथ सफा करते हैं, और जरा भी इस अनीतिपूर्ण कार्य की ओर ध्यान नहीं देते । क्या उनकी यह धारणा है कि इसमें पाप नहीं लगता है ? अगर ओर कुछ समय तक समाज का संगठित रूप से इस
ओर ध्यान नहीं गया व वृद्धविवाह जैसे नारकीय कृत्य समाज में होते रहे तो विचारवान् पाठक सोच सक्ते हैं कि भविष्य में सभी समाज की हालत और भी भयंकर हो जावेगी।
इसी प्रकार बाल विवाह से भी कम हानि नहीं हो रही है ? प्रत्युत वृद्धविवाह से कई गुनी अधिक हानि हो रही है।
विवाह-कार्य का उद्देश्य जहां सुख ओर शान्ति पूर्वक गृहस्थाश्रम व्यतीत करना ही समझा जाता था, वहां अब उसे वैषयिकदृष्टि से ही देखा जाता है; यह पतन की कितनी जधन्य सीमा है।
बाल्यावस्था विद्याध्ययन करने की है, न कि इन सांसारिक प्रपंचों में फँसकर इस जन्म के साथ २ आगामी जन्मों को भी दु:खमय बनाने की।
किन्तु आज का अधिकांश समाज कहां इस बात को सोचता है। वह