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જૈન ધર્મ વિકાસ
धर्मनिर सुख संपतिशाली, श्रेष्ठ जीव अतिप्रतिभाशाली । हे स्वामी विद्याधर राया, धर्म करत तुम यह पद पाया। यहि कारण तुम अय नृप राया, गहिये स्वच्छ धर्मकी छाया।
खयंबुद्धके बचन सुन, संभिन्नमति गरमाय । मित्थारूपी अंधको, किया सभाके माय ॥ अरे खयंबुद्ध तुम चतुराइ, स्वामिहितयुत बुद्धि उपाइ ॥ होडकार जिमि जते अहारा, तिमि तुम बचन ज्ञान उजियारा । सरल प्रसन्न रहत हम स्वामी, तिन मंत्री तुम सम अनुगामी॥ किन कठोर गुरु विद्या दीनी, असमयमें यहि विधि मति कीनी । निज सुखहित सेवक कर सेवा, स्वामी सुखकर वरजत केवा। निजसुख छोड़ी मोक्षगति चावा, ते मतिमंद भ्रमत दुख पावा । अधर्म धर्म नहीं करहु विचारा, सुखमें इससे होत अंधारा ॥ बहुविधि खंडन करत अभागा, अमृत छाडि जहर संगलागा।
खयबुद्ध बोला तभी, सुनकर खंडन बेन। .. धर्मद्रोहसंगत सदा, नर्कगति दुख देन ॥ सुनहु सभिन्नमति चितलाई, धर्म किये सुख आवत भाई॥ राज भवन कोइ अति सुख भागे। कोइ नर मारग कनुका चोगे । ज्ञानचक्षु देखो तुम ज्ञानी, पाप पुन्य कर होय पिछानी ॥ सुख चाहत दुख हे अति भारी, धर्मवान सुखकर अधिकारी। असमय समय सुकर्म न देखा, क्षण २ का सब रखना लेखा ॥ चतुर सेवक खामीसुख चाहे, निज सुख कर्म अर्धान फसा है। ...... ॥श्री शीलकुलकम् ॥
कर्ता-जैनाचार्य श्रीपद्मसूरिजी. (ગતાંક પૃષ્ઠ ૩૧૨ થી અનુસંધાન)
॥ आर्यावृत्तम् ॥ घोरते तेण समा, नाणाइधणं पि पंचविहविसया। इह सेट्ठी दिर्सेतो, सोअव्वो भव्वजीएहिं ॥२०॥ सव्वधणं गिण्हित्ता, चोरा पगया तहावि गिहसामी । जाणामित्ति कहए, णायं णायं मुहा णायं ॥२१॥
अपूर्ण