SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ જૈનધર્મવિકાસ पुस्त: १. मासी, स. १८८७. ५४ १२ भा. जिनप्रतिमा महात्म्य (रचयिता-मुनिश्री भद्रानंदविजय सेवाही) प्रतिमा महा सुखदायिनी, औ आर्त्तशमनी जान लोों सब लोक मन आनंदिनी, औ इष्ट फलदा मान लो ॥ फिर कल्पलतिका सम इसे, श्रीशास्त्रकारों ने कहा। मन ध्यान धर इसका मनुज आनंद पाता है महा ।। ___ (२) मृत्ति श्री जिनराज की, अद्भुत सुधा की स्यंदिनी । संसार सागर के तरन हित, नौ समान विनंदिनी ॥ जिन विंब को जिनवत् समझ, दर्शन करो प्रभुका सदा । सर्वज्ञता जब तक नहीं, त्यागो न जिनपूजा कदा ॥ (३) स्वर्गापवर्गप्रदायिनी, औ दुष्ट ध्येय विनाशिनी, जग जीव मंगलकारिणी, औ आर्त जन आधारिणी।। ऐसी अलौकिक गुणवती, तीर्थंकरों की मूर्तियां, . दर्शन करी पावन हुए, जागी हृदय में स्फूर्तियां ॥ चिंतामणी वत् चिंतितार्थ, प्रदायिका जिन मूर्ति है । फिर स्मरण पूजन मनन से तो, शीघ्र भव की चूर्ति है ॥ . आनंद, आर्द्रकुमार के सद्बोध का कारण यही। . ताते करो तुम भक्ति भद्रानंद पाओगे सही ॥
SR No.522512
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy