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શાસ્ત્રસમ્મતમાનવ ધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા 313 शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा ( लेखक )-पूज्य मु, श्री. प्रमोदविजयजी म. ( पन्नालालजी )
(म. १० ५०४ २८४ था अनुसंधान ) दुमपतए पंडुयए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चए ।
एवं मणुयाण जीविअं समयं गोयम ! मा पमायए॥ अर्थात् समय मात्र भी धर्म क्रिया में प्रमाद का सेवन नहीं करना चाहिये क्योंकि चंचल जीवन का क्षण मात्र के लिये भी विश्वास नहीं है । काल चकर हमेशा सिर पर मंडराता रहता है:
जहेह सीहो व मियं गहाय, मच्चूणरं णेइहु अंतकाले। न तस्स माया व पिया व माया, कालाम्मि तम्मिसहरा भवंति ॥
एगो सयं पञ्चणु होइ दुक्खं, कत्तारमेवं अणुजाइ कम्मं ॥ अर्थात् यमराज का प्रहार होने पर मातापितादि सब आंखों से देखते हो रह जाते हैं, किंतु किसी में भी यह सामर्थ्य नहीं कि उसे पुनर्जीवनदान दे सकें। बिचारा वह अकेला जीवही परभव में अपने कृत कर्मों का फलानुभव करता है। इसलिये संसार को असार समझकर हमेशां धर्मकृत्य करते रहने चाहिये जिससे कभी किसी बात का उपद्रव ही उत्पन्न न हो। __ ज्यों ज्यों जीव धर्म के सन्निकट पहुंचता जाता है त्यों त्यों पौदगलिक साधन प्रवृत्ति से विरक्त होकर आध्यात्मिक सुख के अगाधोदधि में प्रविष्ट हो कर वास्तविक सुखामृत पान का यथार्थानुभव करने लग जाता है । आध्यात्मिक सुख की उत्कृष्टावस्था का अनुभव ही मोक्ष है । और धर्म उसका मुख्य साधन है। धर्मस्थान में मानवता अभिन्न भावसे रहती है वहां व्यक्ति विशेष की प्रधानता को स्थान नहीं है कहा भी है किः. . भगवान और भक्ति के बीच, नहीं जाति पांति का नाता है।
गुड़ लगता है सबको मीठा जो कोइ उसको खाता है। यों तो धर्माचार्यों व शास्त्रकारों ने अपेक्षा विशेषकी प्रधानता देकर धर्म के नाना अंगसूचक विभिन्न भेद किये हैं किंतु वे प्रकार धर्म की भिन्नता के परिचायक न होकर उसके पृथक २ अंगोपांगपर ही प्रकाश डालनेवाले समझने चाहिये । इन अंगोपांगों से धर्म की शाखा प्रतिशाखा का स्फुट ज्ञान हो जाता है । धर्म तो वास्तव में एक अखंड पदार्थ है, और उस अखंड तत्व तक पहुंचने एवं अपना परिचय संबन्ध स्थापित करने के मार्ग भिन्न २ हैं । जिस प्रकार एक ही ग्राम में प्रवेश करने के मार्ग अलग रहने पर भी उन सब मार्गों का संबंध उस गांव से ही रहता है उसी प्रकार धर्म के तत्व (रहस्य) को समझने