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________________ શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા शास्त्रसम्मत मानवधर्म और मूर्तिपूजा ( लेखक )-पूज्य मु. श्री. प्रमोदविजयजी म. ( पन्नालालजी) ( ४. ७-८. ५०४ २०४ या मनुसंधान ) मणपजवोहिनाणी सुयमइणाणी मरंति जे समणा । छउमत्थमरणमेयं केवलीमरणं तु केवलिणो॥ अर्थात् मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी साधु जी मरते हैं वह सब छद्मस्थ मरण ही माना गया है और कैवलियों का जो मरण है वही केवलीमरण है। जब तक यह अंतिम मरण प्राप्त न हो तब तक अनादि कालीन यह भावचक्र चलता ही रहेगा। इस चक्कर में से आत्मा को विमुक्त करने के लिये तथा केवली मरणावस्था तक पहुंचने के लिये एक धर्म ही सहायक है। ___ वाचकमुख्य उमास्वात्याचार्यजी ने भी केवलीमरण या पंडितमरण की प्रशंसा करते हुए फरमाया है किः संचित तपोधनाना, नित्यं व्रतनियमसंयमरतानाम् । .. उत्सवभूतं मन्ये, मरणमनपराधवृत्तीनाम् ॥ अर्थात् जिसका जीवन तप, व्रत, नियम, और संयममय हो उसके मरण को भी उत्सवभूत कहा गया है । मरण का समय भी कोई निश्चित नहीं। साथ ही काल का प्रकोप कब होता है यह जाना नहीं जा सकता है यदि इसका पूर्ण ज्ञान हो जाय तो किसी को भी किसी प्रकार का भय न रहे। हमेशा जीव के हृदय में मरण का भय बना रहे और वह धर्म की ओर झुका रहे इसी लिये काल के प्रहार को अदृश्य रक्खा गया है । धर्म क्रिया या धर्मप्रवृत्ति का किसी खास अवस्था विशेष से भी संबंध नहीं है। उसका संबंध तो बाल्यावस्था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था तीनों अवस्थाओं के साथ समान रुप से है। भगवान् महावीर नेतो धर्म का समय निश्चित करते हुए बतलाया है किः जाव जरा न पीडेइ, वाही जाय न बहुइ । जाव इन्दिया न हायंति, ताव धम्म समाचर ॥ अर्थात् जब तक वृद्धावस्था कष्ट न पहुंचाती हो, व्याधि ने शरीर को न घेरा हो, इन्द्रियशक्ति क्षीण नहीं हुई हो तब तक धर्ममार्ग में प्रवृत्ति करते रहो, अहा! भगवान् के कितने उत्तम विचार ! कितना अभेद भाव ! कितना धर्म के प्रति अपेक्षा भाव और आदेश! हमारे कितनेक बंधुओं ने धर्म काल के लिये वृद्धावस्था को ही नियुक्त कर रखा है किंतु उनकी यह मान्यता भ्रम
SR No.522509
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
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