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________________ સરલતા પત્ર ૧૫૭ - पद को प्राप्त कर कृतकृत्य बन जाते हैं। अव्ययसुख प्राप्तकरनेमें सरलता सर्व गुणों में निधिरूप है। संसारसागर पार करने में नौका के समान मानी गई है। दम्भ त्याग करना ठीक माना गया है ! परन्तु दम्भ छोडना अत्यन्त दुष्कर एवं कठिन है। सुत्यजं रसलाम्पटयं, सुत्यजं देहभूषणम् । सुत्यजाः कामभोगाद्या-दुस्त्यजं दम्भसेवनम् ।। विविध रसों का त्याग करना सुलभ है। शरीर को सुशोभित करने वाले भूषणों को त्यागना इससे भी सुलभ है; कामभोगादि का परित्याग करना भी सुलभ बन शकता है, किन्तु दम्भसेवनका त्याग करना एवं सरलतापूर्ण जीव यापन करना बडाही दुष्कर माना गया है। अनुभव से विचार किया जाय तो यह उक्ति वास्तव में सत्य है। आज अपना साधु समाज सरलता को विशेष कर जीवन में धारण कर दम्भ परित्याग करे तो अवश्य । ___ कल्याण के साथ समाज उद्धार हो सकता है । पूजा प्रतिष्ठाकी क्षुद्र लालसाऐं दम्भ जन्मदात्री मानी गई है। पूजा सत्कार क्षण स्थाई-आत्माभिघाती माना गया है । विद्या पूर्ण जीवन होते हुए भी 'सरल आत्मा' उच्च मार्ग को प्राप्त करने के लिये तथा अपनी अपूर्णता को पूर्ण करने के लिए महाप्रभु महावीरस्वामी की विनय पूर्वक भक्ति करने के लिए शिष्यत्व स्वीकारकर अपनी आत्माको निर्मल बनाने वाले श्रीगौतमस्वामीजी विद्या सम्पन्न होते हुए वडे ही सरल प्रकृति के महानुभावथे सत्य प्राप्त होते ही अपने निर्णित किये हुए काल्पनिक विचारों को छोडकर शास्त्रसम्मत विचार ग्रहण कर लिये । जिस सें उनांकी महानुभावता तथा महानता स्वयमेव प्रगट होती है। ___सदा वे हर एक आत्मा को पूर्णता प्राप्त हो जाय एसी सर्व श्रेष्ठ भावना भी रखते थे। सच्चे पंडित हरएक आत्मा को सच्चासुख कैसे प्राप्त हो उनके विषय में विचार मग्न रहते है। पंडितों में सरलता सेवा वापरायणता 'गुणिषुप्रमोदः' इन भावनाओं का अभाव प्रायः देखा जाता है। सच्चे पण्डितों का यह लक्षण नही है। गौतमस्वामीजी का जीवनआदर्श अपने सन्मुख उपस्थित है । सदा उपास्य देव के गुणों को जानकर उनकी उपासना की जायतो सचमुच वह उपासक मिट कर उपास्य बन सकता है। उपासक, उपास्य और उपासना की एकता हो तब ही जीवन धन्य बनता है । 'देवो भूत्वा देवं यजेत् । जीवन नदी के प्रवाह के सदृश है, सर्वदा समान नहीं रहता। प्रत्येक कार्यमें शुभ विचार किया जाय वही क्षण -समय धन्य माना जाता है। अपूर्ण ..
SR No.522505
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages28
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size8 MB
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