SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ વિરોધી મિત્રે કે પ્રતિ ७३ वासी समाजमेंसे निकलकर जिन पांचों मुनियोंने वेषपरिवर्तन किया उनमेंसे दो मुनि (अंबालालजी, अर्जनलालजी) तो भाग गये। सरदारमलजी मर गये हैं। पन्नालालजी पागल हो गये हैं। देवीलालजी पीछे आना चाहते हैं किंतु पन्नालालजीकी सेवांमें टिके हुए है। पांचों मुनियोंका और आंचार्यश्रीका आपसमें बहुत झगड़ा होता है वास्ते पांचों ही मुनिगण अलग रहते है। ऐसी नानाविध कीवदन्तियों हमारे संबंध में फैल रही है। इस संबंद में कई एक पत्र भी हमारे पास आये थे किंतु उनका यथार्थ उतर देदेने से तथा कई एक स्थानकवासी श्रावकांकी प्रत्यक्ष भेट हो जानेसे कई प्रातो में तो यह संदेह दूर हो ही गया। इतने पर भी इन चालबाजों को संतोष नहीं हुआ तब मालवा से प्रांत में एसी अपुवाहें फैलाना शरु करदी कि उक्त पांचो ही मुनिगण पुनः स्थानकवासी समाजमें आना चाहते है और इस विषयका खूब कोशिश की जा रहे है । जब उसी बातों श्रवणगोचर होरही है तब विवश होकर इनका निराकरण करनेके उद्देश्यसे ही यह लेख लिखना पड़ रहा है यद्यपि लेख लिखनेकी वर्तमान में कोई आवश्यकता नहीं थी किंतु समाज के मस्तिष्क में से भ्रमका भूत निकालने के लिए इतना लिखना जरुरी प्रतीत हुआ। ऐसे दूषित वातावरण फैलाने वाले चालबाजोंको हम सूचित कर देते है कि वे अपने हृदयमेंसे उक्त कल्पनाएं सर्वथा निकाल दे। और समाज भी ऐसे भाइयों से हर समय सावधान रहे । कतिपय श्रावकोंका कहना है कि जो पांचों मुनि गये हैं वे तत्व समझ कर नहीं गये किंतु साप्रदायिक वैमनस्य एवं दोषोंके कारण गये हैं उन भाइयोंको खास सूचना दी जाती है कि इस संबंध में किसी को संदेह हो तो हमारेसे प्रत्यक्षमें निर्णय करे। उनका युक्तियुक्त शास्त्रीय प्रमाणद्वारा संदेह दूर किया जायगा। पन्नालालजी म० सा० की प्रवृति से स्थानकवासी समाज भली भाति परिचित है वे शान्तिकेअनन्य उपासक हैं। अतः व्यर्थके ऐसे झगड़ोमें पड़कर अपने समयका दुरुपयोग करना उन्हें पसंद नहीं । यदि इतनी गंभीरता उनमें न होती तो स्थानकवासीसमाजकी ओर से पांचों मुनियों के लिये लिखे गये लेखों का सचोट उतर कभी का ही दे देते क्योंकि उन्होंने स्थानकवासीसमाजमें ३४ वर्ष तक रह कर वाह्यभ्यंतर प्रवृतिका खूब अनुभव किया है। तथा संप्रदाय की रीति प्रवृति पूर्व क्या थी और वर्तमान में क्या है ? इससे भी ये अनभिज्ञ नहीं है किंतु प्याज के छिलके उतारना इन्हें पसंद नहीं। यदि स्थानकवासीसमाजकी ओर से बहुत आग्रह और प्रेरणा होगी तो विवश हो लेखनी चलानी पड़ेगी।
SR No.522502
Book TitleJain Dharm Vikas Book 01 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichand Premchand Shah
PublisherBhogilal Sankalchand Sheth
Publication Year1941
Total Pages36
LanguageGujarati, Hindi
ClassificationMagazine, India_Jain Dharm Vikas, & India
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy